सुनी सुमता की विनती रे, चिदानंद महाराज।
कुमता नेह निवार के प्यारे, लीनो शिवपुर राज॥
सुमता की विनती सुनकर चिदानंद महाराज ने कुमता के प्रति अपना स्नेह छोड़ा और शिवपुर का राज पा लिया।
शोभनो मोक्षानुकूलतयाऽऽत्महितप्रयोजकत्वेन सुन्दरो मतो यस्या: सा सुमता।
जिसका मत सुंदर है, वह सुमता है। सुंदर क्यों है? क्योंकि वह मोक्षानुकूल है, आत्महित प्रयोजक है। चिदानंद महाराज, यानी आत्मा। वे महाराज क्यों है? उसका जवाब उसके नाम में ही है। चित् और आनंद का साम्राज्य उसके पास है, इसलिए वे महाराज हैं।
इस पंक्ति में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण शब्द है ‘सुनी’। सुमता भी अनादि है, और आत्मा भी अनादि है। असली प्रश्न तो ‘श्रवण’ का था। माँ भला चाहती है, सच कहती है, वैसा करने से 100% फायदा होने वाला हो, पर बेटा सुने ही नहीं तो? ऐसी ही स्थिति यहाँ उपस्थित हुई है। आत्मविशुद्धि की ओर जाने वाला आत्मा का पर्याय आत्महित को चाहता है, आत्महित हो – ऐसा ही कहता है, और उसका अनुसरण करने से 100% आत्महित होने वाला ही है, पर आत्मा सुने ही नहीं तो?
‘सुनी’,
सुनने का भावार्थ है – ध्यान देना।
सुनने का तात्पर्य है – समझना।
सुनने का रहस्यार्थ है – स्वीकार करना।
सुनने का गर्भार्थ है – कर्तव्यबुद्धि का विषय बनाना।
सुनने का ऐदम्पर्यार्थ है – अनुसरण करना।
‘सुनी,’ सुमता भीतरी सद्गुरु है।
उसका कहा हुआ नहीं सुनना – इसी का नाम संसार है। उसका सुनना – उसका नाम मोक्ष है।
जो बाहर के सद्गुरु की सुनता है, वह हकीकत में अंदर के सद्गुरु की भी सुनता है। जो अंदर के सद्गुरु की सुनता है, वह हकीकत में बाहर के सद्गुरु की भी सुनता है। सद्गुरु तो सद्गुरु ही है। बाह्य या आंतरिक भेद से उनका ज्यादा से ज्यादा व्यवहारिक भेद हो सकता है, नैश्चयिक नहीं। जो आपको आत्म-विशुद्धि की ओर खींच ले जाए, वह सद्गुरु है। वह आपका खुद का पर्याय भी हो सकता है।
याद आता है इष्टोपदेश :
स्वस्मिन सद्भिलाषित्वा-दभीष्टज्ञापकत्वतः।
स्वयं हितप्रयोत्कृत्वा-दात्मैव गुरुरात्मनः॥
स्व में शुभाभिलाषा, हित की ज्ञापकता, स्वहित प्रयोजकता – इन तीन कारणों से आत्मा ही आत्मा की गुरु है।
‘सुनी’, उसे नहीं सुनने के कारण ही तो सारी दुर्घटनाएँ हुईं हैं। उसे सुनने से ही सारी दुर्घटनाओं का अंत होने वाला है। आज नहीं तो कल, उसे सुने बिना कोई चारा नहीं है। शायद अनंत काल के बाद भी कल्याण होगा, तो उसे सुनकर ही होगा, तो आज ही हमें हमारे कान खुले क्यों नहीं कर देने चाहिए? सुमता को सुनने का परिणाम कितना सुंदर है!
कुमता नेह निवार के प्यारे, लीनो शिवपुर राज।
कुमता; कुत्सितो मतो भीमभवभ्रमिहेतुतया स्वरूपासुन्दरतया च यस्या: सा कुमता।
अर्थात् जिसका मत खराब हो, वह कुमता है। क्यों खराब है उसका मत? यह भयानक भवभ्रमण का कारण है, इसीलिए; और स्वरूप से भी खराब है, इसलिए।
यह आत्मा का औपाधिक परिणाम है, यह भीतरी कुगुरु है। अकल्याण मित्र, भ्रष्ट मीडिया, विजातीय व्यक्ति, तथाकथित मनोरंजन के साधन – यह सारे बाह्य कुगुरु हैं।
कुगुरु भी अनादि है और आत्मा भी अनादि है। ‘कुगुरु’ का होना आत्मा की करुणता नहीं है, बल्कि कुगुरु के प्रति स्नेह होना आत्मा की करुणता है। कुगुरु के प्रति कोमलता भरा व्यवहार, कुगुरु के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर, कुगुरु के प्रति खिंचाव, आत्मा के सत्यानाश में इनके सिवाय अन्य कोई भी कारण नहीं है। मोक्ष कब? कल्याण कब? सर्वदुःख मुक्ति कब? इसका एक ही पद में जवाब है :
कुमता नेह निवार के प्यारे
कुमता के प्रति स्नेह गया, मतलब दुःख गया।
कुमता के प्रति स्नेह गया, मतलब दुर्गति गई।
कुमता के प्रति स्नेह गया, मतलब संसार गया।
कुमता के प्रति स्नेह गया, मतलब कर्म का बंधन गया।
याद आते हैं उपनिषद् :
छित्त्वा तन्तुं न बध्यते
आपने तंतु को ही छेद दिया, अब आप कैसे बँध सकते हैं? किससे बँध सकते हैं?
याद आते हैं आगम:
दुहओ छित्ता णियाइ
राग-द्वेष कट जाए, तो मोक्षद्वार का उद्घाटन होता है। रिबन काटकर ओपनिंग करने का रिवाज आधुनिक नहीं है, अनादि है। फर्क केवल तीन वस्तुओं का है, रिबन का, काटने का और ओपनिंग का।
कुमता नेह निवार के प्यारे, लीनो शिवपुर राज
कुमता के प्रति नेह, यह रिबन है; उसका निवारण यानी – काटना, ओपनिंग मतलब शिवपुर राज लेना।
कुमता की सारी झंझट सुख की प्राप्ति के लिए है, लेकिन सुख तो कुमता को छोड़ने से ही मिलने वाला है। एक तरफ कुमता के त्याग के सिवाय दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है, और दूसरी तरफ कुमता का स्नेह, कुमता के त्याग को शेखचिल्ली के स्वप्न जैसा बना रहा है। अनादि के इस चक्र को तोड़ने के लिए यह भव प्राप्त हुआ है। चिदानंद जी जिसका भूतकाल में निर्देश कर रहे हैं, वह हमारा वर्तमान बन सकता है। उसे वर्तमान बनाने के लिए ही ये भव है।
कुमता नेह निवार के प्यारे, लीनो शिवपुर राज
कुमता के प्रति नेह – यह हेय है। उसका निवारण उपादेय है। इस हान और उपादान का फल ही शिवनगर का साम्राज्य है।
चिदानंद जी महाराज का एक प्रिय शब्द है – ‘प्यारे’। स्वयं प्रभु जो संबोधन करते हैं, वह याद आता है – “देवाणुप्पिया” … हे देवानुप्रिय। जीव को सत्य मिल जाये उतना काफी नहीं है, उसे सौहार्द भी चाहिए; उसे उपदेश मिल जाए उतना पर्याप्त नहीं है, उसे उर्मि भी चाहिए। इसीलिए निश्चय के शिखर पर विराजित महापुरुष भी हमें स्नेह तथा प्रेम से नहला देने वाला संबोधन करते हैं – ‘… प्यारे।’ जैसे कि सर पर फिरता हुआ महापुरुषों का उष्मापूर्ण हाथ; जैसे कि पीठबल देता हुआ, पीठ पर फिरता हुआ हाथ। कैसी उनकी करुणा! कैसा तो उनका वात्सल्य! एक क्षण तो मेरे जैसा भी सहम गया…, मुझ में इस वात्सल्य को पाने की योग्यता है क्या? और दूसरी ही क्षण में उससे ही समाधान मिलता है कि, ऐसी योग्यता नहीं है, इसीलिए वात्सल्य बरसाना पड़ता है। क्या समर्पित शिष्य को गुरु से मिठास की अपेक्षा होती है? उसके लिए तो सद्गुरु की तीखी वाणी भी गन्ने के रस के समान होती है।
अगले ही क्षण में दूसरा विकल्प उठता है; महापुरुष पात्रता की अपेक्षा रखे बिना एकान्तवत्सल की प्रकृति वाले ही होते हैं। इसलिए ‘मैं लायक हूँ या नहीं’ वे तो अपना प्यार बरसाने वाले ही हैं। और यह प्यार मेरी अपात्रता के कारण असद् रूप में परिणाम प्राप्त करे, इस भयस्थान का क्या? इसका जवाब अगला विकल्प देता है, जो योग-बिंदु के इस श्लोक में है:
हेतुमस्य परं भावं, सत्त्वाद्यागोनिवर्तनम्।
प्रधानकरुणा रूपं, ब्रुवते सूक्ष्मदर्शिनः।।
श्रेष्ठ करुणा, एक ऐसा प्रकृष्ट भाव, जिससे सामने वाले व्यक्ति का अपराधभाव समाप्त हो जाता है। यह भाव भविष्य में पाप की संभावनाओं को समाप्त कर देता है, ऐसा सूक्ष्मदर्शियों का कहना है।
महापुरुषों की करुणा का यह स्वभाव है, जो चंड़कौशिक जैसों का भी जहर उतार देता है, तो मुझ जैसे का भी काम हो जायेगा।
अब अगला विकल्प उठता है कि, महापुरुषों के ‘प्यारे’ बनने के बाद मेरी जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ जाती है। महापुरुष भी सही है ना! हमारे ऊपर प्यार बरसाकर हमें कैसी जिम्मेदारियाँ सौंप दी।
लेकिन इसके उत्तर में अगला विकल्प भी तैयार है। उनकी करुणा और वात्सल्य भाव को देखने के बाद उनके ऊपर जो बहुमानभाव प्रकट हुआ है, उससे उन जिम्मेदारियों के संपूर्ण निर्वाह की ऊर्जा मिल सकती है। और वह मिलती रहे, इसके लिए हमारी ओर से ‘प्यारे’ संबोधन को ग्रहण करना भी उचित है, और उनके पक्ष से ‘प्यारे’ कहना भी औचित्य है।
महापुरुषों की अस्मिता अद्भुत है।
याद आता है प्रशमरति :
सद्भि: सुपरिगृहीतं, यत्किञ्चिदपि प्रकाशतां याति।
मलिनोऽपि यथा हरिण:, प्रकाशते पूर्णचन्द्रस्थः।।
सज्जन जिसे गोद लेते हैं, वह चाहे कैसा भी हो, फिर भी यशस्वी बन जाता है। पूर्णचन्द्र में कभी हिरण को देखा है? कैसा मलिन होता है वह! किंतु फिर भी कैसा शोभास्पद बन जाता है!
‘प्यारे’ up to end… पूरा मोक्षमार्ग यहाँ पर ही समा गया है। पहली नजर से ऐसा लगता है कि, ‘चिदानंद’ और ‘प्यारे’ इन दोनों के बीच कोई मेल ही नहीं है। पर अब लगता है कि इन दोनों के बीच मेल अवश्य है, और बहुत घनिष्ठ है। वात्सल्य के वारिधि तो सद्गुरु ही होगे ना ?
बस… प्यारे को आत्मसात् करते हैं, प्यारे बनते हैं, प्यारा करते हैं, प्यारे पंथ पर चढ़कर प्यारा प्राप्त कर लेते हैं। हमारी अब तक की यात्रा इसके लिए ही थी। अब यह कर लेंगे तो हमारी यह यात्रा सफल। नहीं करेंगे तो कुएँ पर जाकर प्यासे वापस आये, ऐसी बात हो जाएगी। संस्कृत में 2 शब्द आते हैं:
देवानुप्रिय = देवों को भी प्रिय।
देवानांप्रिय = मूर्ख।
हमें कौन से प्रिय बनना है, यह हमें तय करना है।
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