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Writer's picture Priyam

वस्तु की खोट?

Updated: Apr 7




लगत पिया कह्यो माहरो रे,  अशुभ तुम्हारे चित्त;

पण मोथी न रहाय पिया रे, कहा बिना सुण मित्त। …03

प्रिय! मेरी बात तुम्हें अच्छी नहीं लग रही है, 

किंतु मुझसे कहे बिना रहा नहीं जाएगा। ॥3॥

मित्र! सुनो!

‘आप गलत रास्ते पर 5 कि. मी. आगे आ गये हो।’ यह वाक्य किसे अच्छा लगेगा? पैर दुःख रहे हैं, शरीर थक गया है, मैं रास्ता भूल गया हूँ, इसे स्वीकार करना बहुत कठिन है। पहली क्षण में तो जैसे कोई कानों में कील ठोक रहा हो, ऐसा लगता है। पर उसे स्वीकार किए बिना, और वापस मुड़े बिना कोई चारा ही नहीं होता।

विहार में कभी ऐसा हुआ होगा। फिर ऐसा वाक्य कहने वालों को यह भी पूछ लेते थे कि, “इसी रास्ते पर और आगे चलें, तो क्या उस दूसरे गाँव में नहीं पहुँच सकते?”

एक आग्रह होता है खुद के पकड़े हुए रास्ते को नहीं छोड़ने का। और दूसरा आग्रह होता है खुद के पकड़े हुए रास्ते को सही साबित करने का।

एक आग्रह है कि मुझ जैसा बुद्धिशाली तो रास्ता भूलेगा ही नहीं, इस भ्रम को पकड़ के रखना। और दूसरा आग्रह है कि, मैंने जो किया है, वह सोच समझकर ही किया है – ऐसा साबित करने का।

और जब उस गाँव का आदमी कहे कि, “नहीं बापू! दूसरे गाँव में जाने के लिए तो आपको बहुत घूमना पड़ेगा।“ अब सारे आग्रहों की अवगणना करके पीछेहठ करना पड़ता है। “नहीं बापू, आपका गाँव तो उस तरफ आएगा, इस रास्ते से कहाँ से आयेगा?” और फिर पैरों को और मन को दोनों को ही मोड़ना पड़ता है। “यह तो उल्टा रास्ता है बापू।“ बस फिर तमाम आग्रहों की गठरी सर से उतार फेंकनी पड़ती है।

जो संभव नहीं है, तो नहीं है। किंतु वह उल्टा रास्ता है, उस रास्ते पर सुख आता ही नहीं है। ऐसी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए इष्टोपदेश याद आ रहा है:

परः परस्ततो दुःख-मात्मैवाऽऽत्मा ततः सुखम्।

पर, पराया ही है। उससे दुःख ही मिलने वाला है। आत्मा तो आत्मा ही है, स्व ही स्व है। उससे ही सुख मिलने वाला है।

अशुभ तुमारे चित्त

आपको बुरा लगेगा, आपको अवश्य बुरा लगेगा। फिर भी आपसे यह कहता हूँ, क्योंकि आप मेरे मित्र हैं। 

याद आता है नीतिसूत्र:

सत्यं मित्रै: प्रियम स्त्रीभि, रलीकमधुरं द्विषा।

मित्र के साथ सत्य बोलना चाहिए, पत्नी के साथ प्रिय बोलना चाहिए। दुश्मन के साथ झूठ और मधुर बोलना चाहिए।

याद आता है किरातार्जुनीयम्:

हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः

हितकारी भी हो और अच्छा भी लगे, ऐसा वचन दुर्लभ है।

पण मोथी न रहाय

मित्र वह है, जो आपको सच्ची बात कहे बिना रह ही ना सके। जिसे बुरा बनने का डर नहीं है। मेरा बुरा लगेगा, उसकी परवाह नहीं है, जिसे अपनी प्रतिष्ठा से ज्यादा आपके हित में ज्यादा रस है, उसका नाम मित्र होता है।

घर अपने वालम कहो रे, कोण वस्तु की खोट;

फोगट तद किम लीजिये प्यारे, शीश भरम की पोट। …04

प्राणनाथ आप ही कहो हमारे घर में किस चीज की कमी है? 

यदि घर में सब कुछ है, तो फिर व्यर्थ में 

सर पर भव-भ्रमणा की गठरी का भार क्यों उठाना है?

अनंत ऐश्वर्य की स्वामी आत्मा, परद्रव्य से किसी उपलब्धि की आशा रखे, तो यह इस विश्व की सर्वोत्कृष्ट दुर्घटना है। एक अरबपति किसी झोंपड़पट्टी में जाकर कहे कि, “मुझे बैठने के लिए कोई कपड़ा दे दो, मुझे बैठने के लिए साधन दे दो।“ झोंपड़ी वाला कहता है कि, “हमने तो सुना है कि आपके घर में सोने का सिंहासन है।” उसे तो यह मजाक लगता है, किंतु है यह हकीकत। उसने खुद का घर अब तक देखा ही नहीं है, यह भी हकीकत है। घर पर सोने का सिंहासन है, और यह बैठने के लिए टाटपट्टी मांगने निकला है। पीछे उसकी पत्नी आती है, और आबरू की नीलामी होते हुए देखती है। पति का हाथ पकड़कर उसे जरा पीछे खींचती है, और धीमी आवाज में कहती है:

घर अपने वालम कहो रे, कोण वस्तु नी खोट?

शुद्धात्म-चेतना आत्मा से कह रही है कि, ‘हमारे घर में किस चीज की कमी है? 

शुद्ध ज्ञान रूपी स्वर्ण सिंहासन हमारे घर में पहले से ही है, लेकिन तुम अखबार, टीवी और फोन रूपी टाटपट्टी मांगने निकले हो? 

अनंत दर्शन रूपी स्वर्ण सिंहासन हमारे घर में है, और तुम हिलस्टेशन, रिसॉर्ट, सिनेमा और फॉरेन टूर रूपी टाटपट्टी मांगने निकले हो? 

अनंत सुख रूपी स्वर्ण सिंहासन हमारे घर में है, और तुम होटल, लारी, परफ्यूम और स्त्री रूपी टाटपट्टी मांगने निकले हो? 

घर अपने वालम कहो रे, कोण वस्तु नी खोट?

उस अरबपति के दिमाग में अभी भी बात बैठ नहीं रही है। हमारे घर में कहाँ कुछ है? शायद कुछ होगा भी, लेकिन यह टाटपट्टी तो नहीं है ना? तो फिर यह तो मांगना ही पड़ेगा ना? तो फिर मैं कहाँ कुछ गलत कर रहा हूँ?

पत्नी की आँखों में गुस्सा दिखाई देता है, वह दबे हुए किंतु दृढ़ स्वर में कहती है, “बैठने के लिए सोने का सिंहासन उपलब्ध हो, तो फिर इस दरी की जरूरत ही क्या है?”

अरबपति को अभी भी बात समझ में नहीं आती। उसकी परेशानी सुअर के जैसी है। शायद आपके विवाह समारोह में पच्चीस पकवान होगे, लेकिन विष्ठा तो नहीं है ना? तो विष्ठा मांगने तो जाना पड़ेगा ना? तो फिर मैं क्या गलत कर रहा हूँ? 

विष्ठा नहीं है, यह भी हकीकत है, और विष्ठा का अभाव होना कमी नहीं पर खूबी है, दूषण नहीं पर भूषण है – यह भी हकीकत है। Actually, ‘विष्ठा नहीं है’, यही गलती हो रही है। क्या विष्ठा का होना जरूरी है? क्या वह एक आवश्यकता है? क्या उसके न होने का संज्ञान लेना चाहिए? विष्ठा के अभाव का दुःख होना, किसके दिमाग की उपज हो सकती है? ‘विष्ठा नहीं है’- यही सूअरत्व का परिचय है। 

घर अपने वालम कहो रे, कोण वस्तु नी खोट?

सुअर का जवाब स्पष्ट है। ‘विष्ठा की कमी है‌।‘ विष्ठा के बिना सब कुछ व्यर्थ है। असली पकवान तो विष्ठा है। वह नहीं तो कुछ भी नहीं है। विष्ठा की कमी होना प्रतीति का प्रतिबिंब है। तो यह कमी हकीकत में खड्डा नहीं, बल्कि भव-भ्रमण का जमाव है। अर्थ यह है कि, इस कमी को पूरी करने के लिए कुछ लाना नहीं है; मात्र निकालना है। और जब यह निकल जाएगी तो ‘विष्ठा की कमी’ नामक तृषा का स्थान ये तृप्ति ले लेगी।

कोण वस्तु नी खोट?

सब कुछ है। किसी भी चीज की कमी नहीं है। 

याद आता है अध्यात्मोपनिषद् :

अन्तर्निमग्नः समतासुखाब्धौ, बाह्ये सुखे नो रतिमेति योगी।

अटत्यटव्यां क इहार्थलुब्धो, गृहे समुत्सर्पति कल्पवृक्षे? ॥

योगी समता के सुख सागर में डूबा हुआ होता है। उसे बाह्य सुख में रति क्यों होगी। घर के आँगन में ही कल्पवृक्ष पनप रहा हो, वहाँ धनलोभ से जंगल में कौन भटकेगा।

जंगल में भटकने का अर्थ यह नहीं है कि वह दरिद्र है, दुःखी है। जंगल में भटकने का अर्थ इतना ही है कि, उसने घर आँगन के कल्पवृक्ष को अब तक देखा ही नहीं है। भोजन समारोह को देखा, पच्चीस पकवानों को पहचाना। कहाँ यह सब कुछ, और कहाँ विष्ठा? जब इसकी प्रतीति हो गई, तो अब विष्ठा की खोज कैसे रहेगी?

घर अपने वालम कहो रे, कोण वस्तु नी खोट?

सब कुछ है। किसी भी चीज की कमी नहीं है। 

याद आता है अध्यात्मोपनिषद् :

मोक्षोऽस्तु मा वाऽस्तु, परमानन्दस्तु वेद्यते स खलु।

यस्मिन्निखिल सुखानि, प्रतिभासन्ते न किञ्चिदिव।।

मोक्ष हो या ना हो, पर उसके परम आनंद का भीतर में अनुभव तो होता ही है। उसकी तुलना में बाहर के सभी सुख इतने तुच्छ लगते हैं, जैसे कि वे हैं ही नहीं।

जो स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हो, क्या उसे बारदाने की कमी का अनुभव होगा? क्या उसे बारदाने की कमी परेशान करेगी? अरे! बारदाने जैसी चीज़ दुनिया में है या नहीं, उसे क्या फर्क पड़ता है? जिसे आत्मा समझ में आ गई हो, उसकी यही दशा होती है। उसे तो राजा महाराजा 25 टाटपट्टी लेकर बैठे हुए लगते हैं, और चक्रवर्ती 500 टाटपट्टी लेकर बैठे हुए दिखते हैं। और इंद्र उसे 5,000 बारदानों के गोडाउन की चाबी लेकर घूमते हुए दिखाई देते हैं। 

पूरी दुनिया एक दूसरे से पूछ रही है कि, तुम्हारे पास कितने बारदाने हैं? पूरी दुनिया उसी की तलाश कर रही है कि और बारदाने कहाँ से मिलेगे? पूरी दुनिया एक दूसरे की ईर्ष्या कर रही है, “इसके पास तो इतने बारदाने हैं।“ 

और योगी? वह तो सोने के सिंहासन पर बैठ कर मुस्कुरा रहा है। बारदानों के पीछे की दौड़ उसे शून्य की दौड़ लग रही है। बारदानों की खोज उसे व्यर्थ की खोज नजर आ रही है। बारदानों की प्राप्ति का हर्ष उसे पागल की मुस्कुराहट लग रही है। बारदाना न होने का अफसोस उसे सूअर की विष्ठावंचितता का अफसोस लग रहा है। और इन सभी में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है कि, जिसके घर में स्वर्ण का सिंहासन ना हो। इस सत्य का योगी को साक्षात्कार हो रहा है।

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