( क्रमांक 1 से 6 तक मूलाधार चक्र ध्यान के मुताबिक ध्यान करने के पश्चात )
फिर विचार कीजिए कि दूर क्षितिज से गहरे नीले, Grey या Navy Blue रंग की कोई चीज अपनी ओर आ रही है। वह धीरे-धीरे निकट आ रही है, बड़ी हो रही है। वह एक कमल है, अब उसकी सोलह पंखुड़ियाँ देखिए, वह कमल धीरे-धीरे खिल रहा है, प्रकाशमान हो रहा है। फिर उसकी हरे रंग की कर्णिका और पीत वर्ण का और उस पर पतला आसमानी रंग का पराग देखिए।
उस पराग के मध्य में श्वेत रंग से अर्धचन्द्र अक्षर बनाइए।
अब उस पराग के मध्य में लाल रंग से बड़े अक्षर से ‘हँ’ अक्षर बनाइए।
अब चन्द्र और ‘हँ’ को स्थिर करके प्रतिष्ठा करें।
तत्पश्चात् आकाश से श्वेत वर्ण के पुंज को अपनी ओर आते हुए देखें। समीप आने पर उसके दो भाग हो रहे हैं। और समीप आने पर आप एक बिन्दु में श्री अरिहन्त परमात्मा, और दूसरे में शासन देवी देख रहे हैं। और निकट आने पर आप वहाँ श्री चन्द्रप्रभस्वामी और शासन देवी “श्री ज्वालामालिनी देवी” को देखते हैं। फिर उस नील कमल के पराग में “हँ” अक्षर के मध्य के दाहिनी ओर परमात्मा श्री चन्द्रप्रभस्वामी और बाईं ओर शासन देवी श्री ज्वालामालिनी देवी की प्रतिष्ठा कर रहे हैं।
अब पुनः आकाश से आपको श्वेत पुंज आता हुआ दिख रहा है, वह करीब आने पर मातृका वर्णिका दिख रही है – “अ” “आ” “इ” “ई” “उ” “ऊ” “ऋ” “ॠ” “लृ” “ॡ” “ए” “ऐ” “ओ” “औ” “अं” और “अः” – इन १६ अक्षरों को पद्म की पंखुड़ियों पर प्रदक्षिणावर्त रखें। पंखुड़ियाँ स्थिर होने के बाद उनकी वहाँ प्रतिष्ठा करें।
फिर उस कमल के दस रेशे उतारें,
(i) “आ” और “इ” की पंखुड़ी से बीच से “ऐशमारिका”,
(ii) “इ” और “ई” की पंखुड़ी से बीच से “मात्रिका”,
(iii) “ई” और “उ” की पंखुड़ी से बीच से “तिक्ता”,
(iv) “ऊ” और “ऋ” की पंखुड़ी से बीच से “बाला”,
(v) “ऋ” और “ॠ” की पंखुड़ी से बीच से “सरस्वती”,
(vi) “ॡ” और “ए” की पंखुड़ी से बीच से “अमृत”,
(vii) “ए” और “ऐ” की पंखुड़ी से बीच से “श्रीरवती”,
(viii) “ओ” और “औ” की पंखुड़ी से बीच से “शिवा”,
(ix) “औ” और “अं” की पंखुड़ी से बीच से “सीता”,
(x) “अं” और “अः” की पंखुड़ी से बीच से “कुमारिका”,
परम कृपालु परमात्मा का लांछन अर्धचन्द्र है। यह अत्यन्त शीतल, अत्यन्त उज्ज्वल, परम निर्मल, अत्यन्त ओजस्वी, परम तेजस्वी, मनमोहक, मन-आह्लादक, परम सौम्य, अत्यन्त प्रभावशाली, महापुण्यवान, परम सौभाग्यशाली, स्व-पर को सुखदायी और महा मंगलकारी है। ऐसा चन्द्र आता हुआ देखें, फिर इसे नीलपद्म पराग में “हँ” में सबसे नीचे प्रभु के चरणों में विराजित करें, स्थिर करें तत्पश्चात् प्रतिष्ठा करें।
अब इस नील षोडशदल पद्म को शान्तचित्त से देखें, निहारें।
अब कमल को ब्रह्मरन्ध्र के पास ले जाएँ, उस कमल को आते देखकर सुषुम्ना नाड़ी खोलें, फिर उस कमल को अन्दर ले जाकर सम्पूर्ण नाड़ी में फिराएँ और ब्रह्मरन्ध्र के पास लाएँ। फिर वज्र नाड़ी खोलें, और उस कमल को अन्दर ले जाकर सम्पूर्ण नाड़ी में फिराएँ और ब्रह्मरन्ध्र के पास लाएँ, फिर चित्रिणी नाड़ी खोलें, और उस कमल को अन्दर ले जाकर सम्पूर्ण नाड़ी में फिराएँ और ब्रह्मरन्ध्र के पास लाएँ। फिर ब्रह्मनाड़ी नाड़ी खोलें, और उस कमल को अन्दर ले जाकर सम्पूर्ण नाड़ी में फिराएँ और मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र और अनाहत चक्र को स्पर्श करते हुए विशुद्धि चक्र के पास लाकर स्थिर करें और प्रतिष्ठा करें।
इस चक्र का स्थान कण्ठ पर है। आसमानी रंग के सूर्य जैसा इसका आकार है।
यह चक्र अत्यन्त प्रभावशाली है। इस चक्र के ध्यान के प्रभाव से साधक उत्तम वक्ता, काव्य रचना में समर्थ, शान्तचित्त और आरोग्यवान बनता है। यह चक्र बोलता हुआ चक्र है सभी चक्रों को केन्द्रित करके नवसृजन करने की शक्ति रखता है।
ऊपर से यह चक्र नीम के वृक्ष से प्रभावित है, इस चक्र में पहुँचने और कमल को स्थिर करने में “हँ” इसकी चाबी रूपी मन्त्र है। श्री काकिनी देवी और शासन देवी श्री ज्वालामालिनी देवी यक्षिणी से अधिष्ठित और अर्धचन्द्र लाँछन युक्त ‘श्री चन्द्रप्रभस्वामी’ भगवान इस चक्र के सम्राट हैं। हम प्रभु के लिए एक थाल भरकर मोगरे के फूल लेकर खड़े हैं, और प्रभु को चढ़ा रहे हैं। यह चक्र ऐसे महा प्रभावशाली, परम प्रतापी, परम सौम्य और अत्यन्त पवित्र प्रभु से एवं आकाश तत्त्व से प्रभावित है। इस चक्र की आराधना से शुभ अन्तःस्फुरणाएँ होती हैं।
आकाश का कार्य सबको समाहित करने का होता है, उसी प्रकार इस चक्र के प्रभाव वाला साधक अच्छी-बुरी, सुख-दुःख की सभी बातें अपने मन में समा लेता है, किसी से नहीं कहता, अर्थात् वह गम्भीर होता है और कान का कच्चा नहीं होता।
अवकाश में प्रत्यायन करने की एक शक्ति होती है जिससे सम्पूर्ण विश्व में सन्देश व्यवहार होता है, इस चक्र के प्रभाव से मन की तीव्र शक्ति से साधक अन्य को अपने सन्देश पहुँचा सकता है। वचन की शक्ति से वचन सिद्धि मिलती है, काया की शक्ति से दूसरों को मात्र इशारे से सब कुछ समझा सकता है।
विशुद्धि अर्थात् जिससे मन, वचन और काया सुविशुद्ध और पवित्र बने।
विशुद्धि चक्र सृजनशक्ति, अभिव्यक्ति, शब्दतत्त्व, प्रत्यायन क्रियाओं या आभार व्यक्त करने का केन्द्र है और अधिभौतिक स्तर है।
यदि यह चक्र सम्यक् तरीके से प्रभावी हो तो साधक सुन्दर तरीके से नवसृजन करने में समर्थ बनता है। प्रत्यायन जैसी क्रिया, शब्दतत्त्व, वाक् तत्त्व के साथ सम्बन्ध रखता है, शुभ अन्तःस्फुरणा, स्व-अभिव्यक्ति का सुचारु संचालन, वक्तृत्व कला में कुशलता, सत्य बोलने-सुनने की इच्छा वाला बनता है। गला, फेफड़ा, हाथ, पाचन-तन्त्र और थाइरॉइड ग्रन्थि काबू में रखकर काया को स्वस्थ रखता है। साधक सदैव दूसरों का आभार और गुणों की अभिव्यक्ति करते हुए सुख में मग्न बनता है। परम पवित्र आचारवान बनते हुए सुन्दर गुणों का स्वामी बनता है।
यदि यह चक्र नियन्त्रित न हो तो व्यसनी, खराब आदत वाला, चोरी आदि करने वाला बनता है। वात, पित्त, कफ, खांसी आदि बढ़ती है, सदैव दुःख भरी और खराब बातें करता है, दुःखों के सागर में डूबा रहता है। पापप्रवृत्ति में अपनी सृजनशक्ति का दुरुपयोग करते हुए दुर्गति प्राप्त करता है। असभ्य, अविवेकी और असत्य वचन बोलकर लोगों को अपना दुश्मन बनाकर सामने से दुःखों का स्वागत करता है, इसलिए इस चक्र को काबू में रखना जरूरी है
इस चक्र को नियन्त्रित करने के लिए ‘आस्रव’ की भावना सतत करते रहना चाहिए, जिससे सागर जैसा अपरिमित संसार परिमित बने, मन प्रफुल्लित बने, सुख का भोग मिले उच्चतम कक्षा की समाधि मिले।
फिर इस चक्र को निहारते हुए इस चक्र के मूल मन्त्र “अर्हं नमः” का जाप करते हुए चेतना को सभी नाड़ियों से बाहर निकालें। फिर ब्रह्म नाड़ी, चित्रिणी नाड़ी, वज्र नाड़ी और सुषुम्ना नाड़ी को बन्द करते हुए अशोक वृक्ष के नीचे आकर शान्त चित्त होकर सरोवर का अवलोकन करें। फिर “ॐ शान्ति” तीन बार बोलकर दोनों हाथ मसलकर आँखों पर लगाएँ और पूरे शरीर पर हाथ फेरते हुए धीरे-धीरे ऑंखें खोलें।
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