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शकट कथा

Updated: Apr 7




राजा हस्तिपाल की दानशाला में बारह पर्षदाएँ विराजमान थीं। अमावस्या की रात्रि थी, सर्वत्र नीरव शांति थी। प्रभु वीर  जगत के कल्याण के लिए सोलह कलाओं से खिलकर भव्य जीवों को उपदेश दे रहे थे।

दुःखविपाक सूत्र के चतुर्थ अध्ययन का प्रभु ने प्रारंभ किया।

इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में साहंजनी नाम की अत्यंत समृद्ध नगरी थी। नगरजन भी अत्यंत सुखी थे। सभी के यहाँ धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी।

इस नगर के राजा का नाम था महाचन्द्र। महा-चन्द्र की महानता के आगे हिमालय भी छोटा पड़ जाता था, सूर्य भी धुंधला नज़र आता था और चन्द्र भी फीका पड़ जाता था। इस राजा का एक अमात्य था, उसका नाम था सुषेण। सुषेण साम-दाम-दंड-भेद आदि राज्य योग्य तमाम नीतियों में पारंगत था। शत्रुओं के निग्रह में वह कुशल था।

नगरी में अनेक कोट्याधिपति श्रेष्ठी  रहते थे, उनमें से एक था सार्थवाह सुभद्र। सुभद्र अपने नाम के अनुरूप गुणवान और अत्यंत सरल था। उसके पुण्योदय से उसे सुभद्रा नाम की शीलवान पत्नी मिली थी। पति-पत्नी का दाम्पत्य जीवन बहुत स्नेहपूर्ण था। प्रसन्न दाम्पत्य जीवन के फल-स्वरूप उनको एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। उसका नाम रखा गया – शकटशकट भी पाँचो इन्द्रियों से परिपूर्ण और सर्वांगसुंदर था

इस नगरी में सुदर्शना नामक एक गणिका रहती थी। साहंजनी नगरी  में वह सुप्रसिद्ध थी।

उसी नगरी में एक बार विहार करते हुए हम पहुँच गये। नगर के बाहर-ईशान कोने में देवरमण नामक उद्यान था। उस उद्यान में अमोघ नामक यक्ष का पुराना मंदिर था। उसी उद्यान में प्रभात के प्रथम प्रहर में देवनिर्मित-समवसरण में देशना का आरंभ हुआ। नगर के राजा और बारह पर्षदाओं ने एकाग्रता के साथ धर्मदेशना का श्रवण किया।

भिक्षाचर्या का समय होते ही गुरु गौतमस्वामी  भिक्षा के लिए निकल पड़े। नगर के राजमार्ग से जा रहे हाथी, घोड़े और मनुष्यों के झुंड पर उनकी दृष्टि गई। जैसे कि सभी युद्ध करने निकल पड़े हो, वैसा दृश्य था। यह झुंड थोड़ा आगे बढ़ा उतने में उस झुंड के बीच गौतमस्वामी को पुरुष-स्त्री का एक युगल दिखाई दिया। उन दोनों के ही कान और नाक को छेद दिया गया था। उनके हाथ पीठ के पीछे लेकर रस्सी से बाँध दिये गये थे। चाबुक की मार से दोनों के शरीर लहूलुहान हो गये थे। निर्दयी सैनिकों के द्वारा दोनों को बेशुमार त्रास देने के साथ वधस्थान पर ले जा रहा था। मार्ग में हर चौराहे, हर गली में उद्घोषणा की जा रही थी कि, ‘हे नगरजनों! इस युगल की ऐसी दशा के लिए अन्य कोई नहीं, पर यदि कोई कारण है तो उनके किए गए कर्म ही हैं।’

भयंकर वेदना से आक्रान्त होकर करुणता से दहाड़ते हुए उस युगल को देखकर गौतमस्वामी से रहा ना गया। वे सीधे मेरे पास आए। मुझे नम्रता से पूछा, “भगवंत! नरक तुल्य पीड़ा का अनुभव करते हुए मैंने जिस युगल को देखा, वे पूर्वभव में कौन थे? इस भव में उन्हें ऐसी पीड़ा क्यों भुगतनी पड़ रही है? भगवंत कृपा कर के आप इस घटना पर प्रकाश डालिये।”

गौतम की शंका का निवारण करने के लिए मैंने उस युगल के पूर्वभव का वर्णन किया।

इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में छगलपुर नामक एक नगर था। वहाँ सिंहगिरि नामक पराक्रमी राजा था। उसी नगर में छण्णिक नाम का एक कसाई रहता था। वह श्रीमंत था, पर भयंकर पापी था।  पापकार्य-हिंसादि करने में उसे बहुत ही आनंद आता था। उसका मुख्य कार्य बकरे आदि को मारकर, उनका मांस बेचने का था। यह कार्य उसकी आजीविका का मुख्य साधन था।

छण्णिक के वाड़े में सैकड़ों-हजारो बकरे, नील-गाय, बैल, खरगोश, हिरण, सूअर, मोर, पाड़े और सिंहों को बाँधकर रखा जाता था। इन सबकी देखभाल और उनके आहार-पानी की व्यवस्था छण्णिक के पगारदार नौकर करते थे।

छण्णिक के वहाँ नौकरी करने वाले नौकर इन बकरे आदि को छुरी आदि से काटकर उनका मांस छण्णिक के वहाँ पहुँचाते थे। उसके कुछ दूसरे नौकर इस मांस को तपाकर, भूँजकर, शेक-कर बाजार में बेचने का काम करते थे।

छण्णिक स्वयं भी इन प्राणियों का मांस भोजन में लेता, ऊपर से मदिरापान करता। इस तरह वह अपना जीवन बिता रहा था। मानो कि मांसाहार और मदिरापान उसके जीवन का कर्तव्य बन गया था। अविरत ऐसी पापप्रवृत्ति में रचा-पचा रहकर उसने दुःखदायक, कलेशोपात्दक तीव्र अशुभ-कर्मों का बँध किया। सात सौ वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके छण्णिक मृत्यु पाकर चौथी नरक में दस सागरोपम आयुष्यवाला नारक बना।

नारकी का आयुष्य पूर्ण करके छण्णिक इस नगर के सार्थवाह सुभद्र की पत्नी सुभद्रा की कुक्षि में गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ। सुभद्रा आज तक जातनिंदुका थी, यानि उसकी कुक्षि से जिस बालक का जन्म होता था, वह जन्म लेते ही मृत्यु की शरण हो जाता था। इसलिए सुभद्रा बहुत निराश रहती थी। छण्णिक का जीव जन्म के बाद जिंदा बच गया, इसलिए पति-पत्नी के आनंद की कोई सीमा नहीं थी। दोनों ने बालक को प्यार से उठाया और उसे बैलगाड़ी के पास लेकर गये। गाड़े के नीचे बालक को रखकर फिर तुरंत उठा लिया। बहुत जतन से उसकी परवरिश करना शुरू किया। योग्य दिन नाम रखने का समय आया, तो बालक का नाम रखा – शकट। शकट यानि गाड़ा। बालक को जन्म के तुरंत बाद बैलगाड़ी के नीचे रखा था, इसलिए बालक का नाम रखा – शकट।

शकट का बचपन पलक झपकते ही बीत गया। जवान शकट को देखकर सार्थवाह सुभद्र को परदेश व्यापार करने जाने की इच्छा हुई। पत्नी-पुत्र की अनुमति लेकर सुभद्र ने समुद्र मार्ग से परदेश की और  प्रस्थान किया। लवणसमुद्र में उसका जहाज धीरे-धीरे आगे बढ़ रहाँ था। पर उसके पुण्य का जहाज पीछे रह गया था। जहाज किनारे पर पहुँचे उसके पूर्व ही समुद्र में टूट पड़ा। जहाज और जहाज में बैठे हुए सभी मुसाफिरों के साथ सुभद्र ने भी जलसमाधि ले ली।

सुभद्र की मौत के समाचार कुछ ही समय में साहंजनी नगरी मैं फैल गया। सुभद्रा और शकट इस समाचार से रो-रो कर अधमरे से हो गये। सुभद्रा को लाखों-करोड़ों की संपत्ति चले जाने का दुःख नहीं था, उसे दुःख था उसके पति के परलोक गमन का। सुभद्रा पति के विरह के सदमे को झेल नहीं सकी। दिन ब दिन उसका शरीर कृश होने लगा। वह बार-बार पति की याद में खो जाती थी।

ऐसी परिस्थिति में सुभद्रा को आश्वासन देना तो दूर की बात, पर नगर के श्रेष्ठियों, अधिकारियों और सार्थवाहों ने सुभद्रा के वहाँ जो उनकी अमानत रखी थी, उसे भी उठा लिया। ऐसी सारी घटनाएँ सुभद्रा के लिए जलने पर नमक छिड़कने जैसी साबित हुई। सुभद्रा इन सारे आघातों को सहन नहीं कर पायी। एक दिन सुभद्रा भी पति के पीछे परलोक चली गई।

सुभद्रा की अंतिम क्रिया पूर्ण होते ही नगर-रक्षकों ने शकट के घर को चारों ओर से घेर लिया। शकट कुछ भी पूछे उससे पहले ही रक्षकों ने शकट को उठाकर घर से बाहर निकाल दिया। उसके बाद शकट के पिता सुभद्र से जिन-जिन को पैसे लेने बाकी थे, उन सभी लेनदारों को बुलाकर रूपये के बदले में घर को आपस में बाँट लेने को बता दिया।

बिन माँ-बाप और बेघर हुआ शकट अनाथ और निराधार हो गया। साहंजनी नगर की गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले में  शकट भीख माँगने लगा। भीख से उसकी भूख पूरी ना होने पर वह चोरी और जुए जैसी बुरी आदतों में गिर गया। इस दरमियान गलत मित्रों के साथ उसकी मैत्री हो गई। इस तरह उसे एक ओर धन भी मिला तो दूसरी ओर गलत मित्र भी मिल गये। जिनके परिणाम से उसके जीवन में वेश्यागमन और परस्त्रीगमन जैसे बड़े पापों का प्रवेश हुआ।

चोरी और जुए से मिली हुई संपत्ति को शकट उस नगर की खूबसूरत वेश्या सुदर्शना के पीछे लुटाता था। बार-बार सुदर्शना से हो रही मुलाकातों के कारण वह सुदर्शना पर आसक्त हो गया।

सुदर्शना अपने नाम के अनुरूप गुणों को धारण करती थी। एक बार जो भी मनुष्य उसे देख ले – फिर उसे स्वप्न में भी ना भूल ना सके उतनी वह रूपवान थी। उसके शरीर के प्रत्येक अवयव सुडोल थे। स्नानादि कर के शरीर पर रेशमी वस्त्र और महामूल्यवान आभूषणों को धारण करके जब वह विलास भवन में दाखिल होती थी, तब नगर के रसिकजन उसके रूप को देखकर पुतले की तरह स्थिर रह जाते थे। उसमें भी रात्रि के समय में वह जब लयबद्ध और तालबद्ध नृत्य करती थी तब तो प्रेक्षकों की साँसे रुक जाती थी। रूप और कला में उसके समकक्ष कह सके ऐसी एक भी गणिका साहंजनी नगरी में नहीं थी।

नगरी के कलारसिक और कामरसिक हजारों युवा गणिका सुदर्शना के प्रति आकर्षित थे। उसके साथ एक रात बिताने के लिए सैकड़ों स्वर्णमुद्राएं उसके चरणों में न्यौछावर करने को तैयार थे। सैकड़ों-हजारों गणिकाओं का परिवार धराती हुई सुदर्शना पर नगर के राजा महाचन्द्र भी प्रसन्न थे, इसलिए सुदर्शना राजमान्य गणिका थी।

शकट को सुदर्शना के प्रति बेहद लगाव था। एक क्षण भी उससे अलग होना, यह शकट के लिए बहुत कठिन था। जल के बिना जैसे मछली नहीं रह सकती वैसे सुदर्शना के बिना जीना शकट के लिए मुश्किल था। जुए से मिली हुई तमाम संपत्ति वह सुदर्शना के चरणों में रख देता था। बदले में सुदर्शना उसे स्वर्गलोक के सुख का अहसास कराती थी।

एक दिन राजा महाचन्द्र के अमात्य सुषेण खुद गणिका सुदर्शना के भवन में पधारे। उस समय सुदर्शना शकट के साथ अपने शयनखंड़ में संसार के दिव्य सुखों का आस्वाद ले रही थी। सुदर्शना की खास गणिका ने महामात्य के आगमन की खबर देते ही सुदर्शना ने शकट को शयनखंड से बाहर जाने इशारा किया। शकट के बाहर निकलते ही सुषेण की नजर शकट पर पड़ गई। एक दिन का रंक शकट स्वर्गलोक की अप्सरा जैसी सुदर्शना के साथ कामभोग का सुख उठाये, यह सुषेण से सहन नहीं हुआ। सुषेण ने अपने सेवकों द्वारा शकट को सुदर्शना के भवन से धक्के देकर बाहर निकलवाया। शकट फिर एक बार रास्ते पर आ गया। फिर एक बार वो असहाय और निराधार हो गया।

शकट को भवन से बाहर निकलवाकर सुषेण सुदर्शना के पास गया। सुदर्शना ने अमात्य सुषेण का भावभरा स्वागत किया। सुषेण सुदर्शना के पीछे-पीछे उसके शयनखंड़ में गया। गणिका सुदर्शना ने महामात्य सुषेण को मनुष्यलोक के श्रेष्ठ सुखों का अनुभव कराया। सुषेण को भी ऐसा आनंद हुआ जैसे वह किसी दिव्यलोक में विचर रहा हो।

गणिका-भवन से बाहर निकाले गए शकट को सुषेण के द्वारा हुए अपने अपमान की जितनी चिन्ता नहीं थी, उससे ज्यादा उसे सुदर्शना की याद सता रही थी। सुदर्शना के बिना उसे चैन नहीं आ रहा था। उसका तन-मन सुदर्शना को पाने के लिए अविरत तरस रहा था। खाने-पीने, घूमने-फिरने, सब से उसका मन उठ गया था।

सुषेण ने उसे मार-मारकर बाहर निकाला था, फिर भी शकट सुदर्शना के भवन के आसपास छिपता हुआ फिर रहा था। उसका मन निरंतर सुदर्शना को पाने को झुलस रहा था। इसलिए सुदर्शना के भवन में किस तरह से प्रवेश करने को मिल जाए, वह इसी मौके की तलाश कर रहा था।

एक दिन उसे गणिकाभवन में प्रवेश करने का गुप्तद्वार प्राप्त हो गया। गुप्तद्वार से प्रवेश करके तुरंत वह सुदर्शना के निजीकक्ष में पहुँच गया। सुदर्शना भी शकट को देखकर रोमांचित हो गई। उसने शकट का हृदय से स्वागत किया। स्नान /भोजनादि कराकर उसे स्वस्थ किया। शकट और सुदर्शना पूर्ववत् संसार के भोगसुख में लीन हो गये।

जब मानव के सुख के दिन चल रहे हों, तब उसे उसके दुःख के दिनों की याद नहीं आती है। अनादिकाल से मानव की यह मानसिकता है।

शकट अपने भूतकाल को भूल कर सुदर्शना के साथ कामभोग रूपी सुख के महासागर में डूब गया था। उसमें एक दिन रंग में भंग पड़ गया…

महामात्य सुषेण अपने सेवकों के साथ सुदर्शना के भवन में पधारे। सुदर्शना को वे अपनी प्रियतमा मानते थे। इसलिए वे सीधे ही सुदर्शना के शयनखंड़ में चले गये। शकट-सुदर्शना को विषयासक्त स्थिति में मग्न देखकर सुषेण का दिमाग छटक गया। उसका चेहरा लाल-पीला हो गया, उसका शरीर काँपने लगा, उसने दाँत पीस लिये, उसके कपाल पर झुर्रियाँ पड़ गई। उसने अपने सेवकों के द्वारा लकड़ियों से मार-मारकर शकट को गणिकाभवन से तो बाहर निकाला ही, साथ में उसके दोनों हाथ रस्सी से पीठ के साथ बाँधकर उसे राजा के समक्ष खड़ा कर दिया।

सुषेण ने राजा महाचन्द्र को प्रणाम करके कहा, “महाराज! इस नालायक ने जिसे मैं प्राणप्रिया मानता हूँ, उस सुदर्शना के शयनखंड में प्रवेश करने का बड़ा अपराध किया है। आप इसे कड़ी से कड़ी सजा दीजिए।”

यह सुनकर राजा महाचन्द्र ने सुषेण से कहा, “देवानुप्रिय! आप उसे आप की इच्छानुसार दंड दे सकते हैं।”

गौतम! आज जिस युगल को आपने देखा वे शकट और सुदर्शना थे। सुषेण ने शकट की धृष्टता और सुदर्शना की बेवफाई से आवेश में आकर दोनों को कड़ी सजा दी, जिसे आप साक्षात् देखकर आये हैं।

शकट का पूर्वभव और वर्तमान दुर्दशा को जान-कर गौतम को नयी जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘भगवंत! शकट यहाँ से मृत्यु पाकर कहाँ उत्पन्न होगा?”

मैंने कहा, “गौतम! सत्तावन वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके आज जब दिन का तीसरा हिस्सा बाकी रहेगा तब उसकी मृत्यु होगी। उसकी मृत्यु भी बहुत ही दर्दनाक होगी। लोहे की रूपवती स्त्री की पुतली को भयंकर ताप से तपाया जायेगा, फिर उस जलती हुई पुतली के साथ शकट आलिंगन कराया जायेगा। आलिंगन होते ही भारी वेदना से आक्रान्त होकर शकट की मौत हो जायेगी। मरकर रत्नप्रभा नाम की प्रथम नरक में उसका जन्म होगा।

वहाँ से च्यवन कर वे दोनों राजगृह नगर में चंडाल कुल में युगलिक के रूप में उत्पन्न होंगे। बारहवें दिन माता-पिता उनके नाम शकट और सुदर्शना रखेंगे।”

बाल्यावस्था पूरी करके वे दोनों युवावस्था में प्रवेश करेंगे। युवा होते ही सुदर्शना रूप, लावण्य और सौंदर्य से छलक उठेगी। उसके रूप से दूसरे तो छोड़ो, उसका सगा भाई शकट भी पागल हो जायेगा। शकट बहन सुदर्शना के साथ मर्यादा भूलकर कामभोगों का सेवन करेगा। दोनों सगे भाई-बहन होने पर भी पति-पत्नी की तरह जीवन व्यतीत करेंगे।

आगे चलते शकट लोगों को मायाजाल में फँसाकर मारने का धंधा करेगा। उस निमित्त से बहुत सारे पापकर्म करेगा। ऐसा करके उसे तामसिक आनंद मिलेगा। इस तरह भारी कर्म बाँधकर वह पहली नरक में उत्पन्न होगा।

वहाँ से मृगापुत्र, उज्झितक की तरह संसार में दीर्घकाल तक भटकेगा। सातों नरकों में जायेगा, और तिर्यंचगति, विकलेन्द्रिय, एकेन्द्रिय आदि में लाखों-लाखों बार जन्म-मरण के फेरे करेगा।

उसके बाद वहाँ से निकलकर वाराणसी नगर में मत्स्य के रूप में जन्म लेगा। एक दिन मच्छीमार की जाल में फँस जायेगा। मच्छीमार घर ले जाकर उसका वध करेगा।

वहाँ से उसी वाराणसी नगरी में वह श्रेष्ठीकुल में पुत्र के रूप में उत्पन्न होगा। सम्यक्त्व और श्रमणधर्म की प्राप्ति करके आराधक भाव में कालधर्म पाकर वह सौधर्म नाम के प्रथम देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से च्यवन कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। बड़ा होकर साधु जीवन स्वीकार करके, सम्यक् पालन करके, सर्वकर्मों का क्षय करके अंत में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बनेगा।

कार्तिक मास की अमावस की रात्रि में प्रभु ने शकट के घोर दुःखों का जो वर्णन किया, उसे श्रवण करके पावापुरी की पर्षदा के चेहरे पर वैराग्य का मेघधनुष रच गया।

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