3 अक्षर
श्री भगवतीसूत्र की एक घटना है। भगवान महावीरस्वामी गौतमस्वामी को कहते हैं कि, “गौतम! अभी खंदक परिव्राजक यहाँ आयेगा।” प्रभु के यह वचन सुनकर गौतमस्वामी प्रभु की इजाजत लेकर खंदक परिव्राजक को लेने जाते हैं।
जो गौतम स्वामी के सीनियर मुनि नहीं है, जो मुनि भी नहीं है, जो कोई उत्कृष्ट श्रावक भी नहीं है, और जो व्रतधारी श्रावक नहीं है। अरे, यहाँ तक कि जो जैन भी नहीं है। अरे, जो न्यूट्रल गृहस्थ भी नहीं है। जो दूसरे धर्म में दीक्षित है, उनको गौतमस्वामी सामने से लेने जाते हैं।
भगवतीसूत्र में गौतमस्वामी के उद्गार हैं, “सागयं हे!” खंदक आपका स्वागत है। “सुसागयं” आपका बहुत-बहुत स्वागत है।
सर्वलब्धिनिधान, प्रथम गणधर, चौदहपूर्वी – द्वादशांगीसर्जक,’ नेक्स्ट टु महावीरस्वामी ऐसे गौतमस्वामी, अंदर से और बाहर से संपूर्ण समृद्ध ऐसे गौतमस्वामी एक जीव को धर्माभिमुख करने के लिए इतना झुक सकते हैं, तो हम तो बाहर से भी खाली और अंदर से भी खाली, फिर भी हम झुक नहीं सकते ?
यही खंदक परिव्राजक प्रभुवाणी को ह्रदय में धारण कर खंदक अणगार बनते हैं। यही खंदक अणगार शास्त्रों के पारगामी बनते हैं। यही खंदक अणगार गुणरत्न संवत्सर तप करते हैं, और अपनी आत्मा का कल्याण साध लेते हैं।
इन सभी के मूल में गौतमस्वामी के तीन अक्षर हैं – “सागयं”। अक्षर तीन ही है, पर प्रेम से तर-बतर कर दे ऐसे हैं। वात्सल्य में भिगोये हुए हैं सामने वाले व्यक्ति के भावोल्लास बढ़े ऐसे हैं।
शहद या ज़हर
मैं आपको पूछता हूँ? दुकान में आये हुए ग्राहक के प्रति आप का बर्ताव कैसा होता है? घर पर आये हुए दामाद के प्रति आप का बर्ताव कैसा होता है? और संघ के स्थानों पर आए व्यक्ति के प्रति आपका बर्ताव कैसा होता है? आपके बर्ताव से यहाँ आए हुए व्यक्ति का उल्लास बढ़ेगा या टूटेगा? आपके शब्दों से उसकी संघ के प्रति भावना जगेगी या मृत: प्रायः हो जायेगी? आप का रवैया उसे रोज यहाँ दौड़कर आने का मन हो जाये ऐसा होता है? कि गलती से भी यहाँ पैर नहीं रखना है – ऐसा इगो-हर्ट करने वाला होता है ?
मुझे कहने दीजिए कि, आप अधिकारी हो या अनधिकारी हो, कार्यकर्ता हो या ना हो, संघ के एक भी स्थान में आए हुए एक भी व्यक्ति को नीचा गिराना, उसका अपमान करना, उसे बुरा बताना ऐसा आपका कोई अधिकार नहीं है।
हमें शरम नहीं आती है? वह व्यक्ति संघ से दूर हो जायेगा, संसार के नजदीक हो जाएगा। वह पुण्य छोड़कर पाप करेगा, वह संघ के प्रति दुर्भाव लेकर जायेगा, वो मन में जिनशासन के प्रति अरुचि की गांठ बांध लेगा, वो दूसरे पाँच-पच्चीस लोगों के भावों को भी तोड़ डालेगा। यह दोष किसके सर पर ?
हमारे ग्राहक के साथ हम शहद से भी मीठा व्यवहार करते हैं और यहाँ आने वाले व्यक्ति पर गलती से या बिना गलती से जहर की पिचकारी छोड़ेंगे तो इसका अर्थ क्या है ?
भगवान होठ खोलते तो कह देते कि, ‘भाई! पूरी जिंदगी मैंने जो इमारत बनाने का प्रयास किया था, उसे तू तोड़ने का प्रयास कर रहा है। पूरी जिंदगी मैंने जिनको तारने का प्रयास किया था, उनको तू डुबोने का काम कर रहा है। तू गलती से भी ऐसी गलतफहमी में मत रहना कि तू व्यवस्था कर रहा है। तू हकीकत में तूफान खड़ा कर रहा है। तू हकीकत में तोड़फोड़ कर रहा है। तू ऐसा काम कर रहा है कि जिससे यह देरासर, उपाश्रय, आयंबिल खाता, पाठशाला, व्याख्यान इन सभी का अर्थ ही नहीं रहेगा। अरे! अगर यह सब ना होता तो भी किसी को संघ के प्रति दुर्भाव होने की संभावना नहीं होती। वह व्यक्ति आराधना नहीं करता उतना ही होता, पर वह व्यक्ति द्वेष की गाँठ बांधकर आशातना तो ना करता।
खुद को विद्वान और स्वामी मानने वाले ठेकेदार संघ को तहस-नहस करने में कभी-कभी बड़ा हिस्सा रखते हैं। मैं कहता हूँ, मर जाना परंतु वहां आने वाले छोटे से बड़े, किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी अयोग्य बर्ताव मत करना। आप से अगर हो सके तो उसे प्यार से सहला देना। हो सके तो उसे बहुत-बहुत वात्सल्य देना। वह अगर हिचकिचाया तो सामने चलकर उसे सांत्वना और पीठबल देना। कुछ ना आये तो मौन रखना। मौन ना रह सको तो घर पर बैठना, पर संघ में आए हुए एक व्यक्ति की भी आशातना मत करना।
शास्त्र कहते हैं कि बाल जीव को तो भरपूर प्यार देना चाहिए। लेकिन इसके सामने टूट पड़ने और उसके ऊपर चढ़ बैठने के लिए हमें बाल जीव ही पसंद होते हैं। आप किस तरह से सही हो, यह सभी बातें ऊपर चढ़ा दो। यह बात अच्छे से समझ लीजिए कि आपकी यह पद्धति प्रभुद्रोह, शास्त्रद्रोह और संघद्रोह है।
पंन्यास श्री भद्रंकरविजयजी म. सा. की तबीयत ठीक नहीं थी। वंदनार्थी आते रहते थे और सभी को मिलने दिया जाये तो पूज्यश्री को बहुत परिश्रम होता। इसलिए शिष्य कभी-कभी किसीको पूज्यश्री तक जाने नहीं देते, तो पूज्यश्री शिष्य को डांटते थे।
“भगवान ने उसे मेरे तक भेजा है और आप उसे वापस भेजेंगे? एसी अमैत्री करनी है?”
♦ आप समझ लो कि संघ में आने वाले व्यक्ति विश्व की अरबों व्यक्तियों में सर्वोत्कृष्ट भाग्यशाली है।
♦ आप समझ लीजिए कि संघ में आने वाले व्यक्ति अनंतानंत जीवों में मोक्षमार्ग के बिलकुल करीब आए हुए या मोक्षमार्ग को प्राप्त कर चुके व्यक्ति हैं।
♦ आप समझ लो कि संघ में आने वाले व्यक्ति परमात्मा की अपरंपार कृपा पाए हुए व्यक्ति हैं।
यदि हम प्रभु के भक्त हैं, तो प्रभु के कृपापात्र के प्रति हम अयोग्य बर्ताव करेंगे तो कैसे चलेगा? यदि प्रभु के हम भक्त हैं तो हमारा Role प्रभु के भक्त बढ़ें उसमें होना चाहिए या कम हो जाये उसमें होना चाहिए? छाती पर हाथ रखकर हम अपने आपसे पूछेंगे कि मेरा बर्ताव पाँच-पच्चीस लोग संघ में आये ऐसा है या पाँच-पच्चीस लोग कम हो जाये ऐसा है?
नीतिशास्त्र कहता है,’ विचित्र स्वभाव का सेवक उसके स्वामी को अकेला कर देता है।’
∗ श्राद्धदिनकृत्य ग्रंथ स्पष्ट कहता है ∗
विवायं कलहं चेव, सव्वहा परिवज्जए।
साहम्मिएहिं सद्धिं तु, जओ एअं विआहिअं।।
जो किर पहणई साहम्मिअंमि कोवेण दंसणमयम्मि।
आसायणं तु सो कुणई, विक्किवो लोगबंधूणं।।
साधर्मिकों के साथ किसी भी तरह का विवाद और कलह करना ही नहीं चाहिए, क्योंकि कहा गया है कि जो साधार्मिक का गुस्से से अभिघात करे, वह निष्ठुर है। वो हकीकत में तीर्थंकर परमात्मा आशातना करता है।
√ जैन उसे कहते हैं, कि जो विश्व के किसी भी जीव का अपमान ना करे।
√ जैन उसे कहते हैं, कि जिसे विवाद और कलह करना आता ही ना हो।
√ जैन उसे कहते हैं, कि जो स्वप्न में भी किसी के साथ असभ्यता से बात ना कर सके।
√ जैन उसे कहते हैं जिसे पापी से पापी जीव पर भी हितबुद्धि हो।
क्या जैनी, जैन संघ जैसी परम पवित्र भूमि आए हुए पुण्यशाली व्यक्ति के साथ रुक्षता और उद्दंड व्यवहार कर सकता है?
संघ पर असली आक्रमण सरकार का या विधर्मी का नहीं है, असली आक्रमण अंदर के अभागी जीवों का है। पुण्यपाल राजा को स्वप्न आया था कि सिंह मृतप्रायः हो गया है।
सिंह को कौन मार सकता है? सिंह के सामने आँख उठाकर भी कौन देख सकता है? यह सिंह है कौन? भगवान जवाब देते हैं, “यह सिंह, यानी जिनशासन। बाहर का तो कोई भी पशु उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता, परंतु अंदर के कीड़े उसे नोचकर खा रहे हैं। उनके सामने यह सिंह लाचार है।”
मुझे कहने दो, कि विश्व की सर्वोत्कृष्ट शक्ति-स्वरूप जिनशासन को पाने के बाद इस शक्ति से हम हमारे कर्मक्षय करें, यह संभव भी है, और हम उस शक्ति को परास्त करें, थका दे और मरने तक के लिए मजबूर कर दे यह भी संभव है। बोलो क्या करना है हमें ?
बनना ही हो तो संघ के सेवक बनना। संघ के कीड़े मत बनना, उससे तो अनंतकाल तक संघ की प्राप्ति होना मुश्किल हो जायेगा। आपकी दुकान के सारे ग्राहकों को धमकाकर निकालने पर आपका नुकसान कम होगा। पर यहाँ आए हुए एक भी व्यक्ति के साथ आपने स्नेह से बर्ताव ना किया, तो उसका नुकसान बेशुमार है। यहाँ आने वाले व्यक्ति के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना भी एक प्रकार की शासनप्रभावना है। यहाँ आए हुए व्यक्ति के साथ रूक्ष व्यवहार करना भी शासन-अप्रभावना है। श्राध्धदिनकृत्य ग्रंथ कहता है:
साहम्मियाण वच्छल्लं कायव्वं भत्तिणिब्भरं।
देसियं सव्वदंसीहिं सासणस्स पभावणं।।
बहुत-बहुत भक्ति से साधर्मिक वात्सल्य करना चाहिए। केवलज्ञानी भगवंत कहते हैं कि, यह जिनशासन की प्रभावना है।
तम्हा सव्व पयत्तेण जो नमुक्कारधारओ।
सावओ सो वि दट्ठव्वो, जहा परमबंधवो।।
इसलिए जिसके पास नवकार से ज्यादा कुछ भी ना हो उस श्रावक को भी इस तरह देखना चाहिये जैसे कि वो परम स्वजन हो।
परम स्वजन के लिए हम कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। परम स्वजन के पीछे हम सब कुछ कुर्बान करने तैयार हो जाते हैं। परम स्वजन के लिए हम सब कुछ सहन करने को तैयार हो जाते हैं। परम स्वजन जो करता है वह हमें अच्छा लगता है। परम स्वजन के साथ मनमुटाव, विवाद, अहं, ममत्व, दुर्व्यवहार आदि कुछ नहीं होता। और जब साधर्मिक ही परम स्वजन बन जायेंगे, तब क्या उनके साथ यही भूमिका नहीं आ जायेगी?
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