अनन्त भवों में भटकते हुए एकत्रित की गई पुण्यराशि के प्रभाव से हमें लोकोत्तर जिनशासन की प्राप्ति हुई है।
इस अद्भुत जिनशासन की प्राप्ति होने के पश्चात् भी जीव शासन को सफल करने हेतु पुरुषार्थ नहीं करता, तथा मोहराजा के वशीभूत होकर शासन को ही गलत समझने लगता है।
हम शासन के प्रति निष्ठावान हों, शासन के लिए कुछ कर मिटने की भावना वाले हों तथा सभी के साथ मिलकर श्रद्धाभाव एवं शासनभक्ति से कर्तव्यपरायण होकर शासनोन्नति का कार्य करें !
“Power of Unity” की लेखमाला में
सद्भाग्य से आशीर्वाद के रूप में प्राप्त हुए प्रभु के इस अत्यन्त तेजस्वी, ओजस्वी शासन के लिए किस प्रकार की एकता हमारे भीतर होनी चाहिए इसके लिए हम विचार-विमर्श कर रहे हैं।
“U” = Understanding (समन्वय)
“N” = No Negativity (सकारात्मकता)
इसके पश्चात् आता है Letter “I”
“I” = Involvement (सक्रियता अर्थात् क्रियाशीलता)
बहुत से लोगों की ऐसी विचारधारा होती है कि,
“जो हो रहा है, उसे होने दो ! हमें उससे क्या लेना-देना ? भाई इस चक्कर में कौन बुरा बनना चाहेगा ? कुछ बोलकर बिगाड़ने में क्या मतलब ?…”
तीर्थरक्षा, धर्मरक्षा, शीलरक्षा जैसे अनेक प्रश्नों में वस्तुतः सक्रिय होने की आवश्यकता है, किन्तु हम वहाँ केवल सम्बन्ध, अपनी इमेज और स्टेटस को संभालने के चक्कर में ऐसे गम्भीर प्रश्नों पर मौन धारण कर लेते हैं।
इस सन्दर्भ में कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी के द्वारा स्पष्ट शब्दों में सूचित किया है कि,
“धर्मध्वंसे क्रियालोपे, स्वसिद्धान्तार्थ विप्लवे ।
अपृष्टेनाऽपि शक्तेन, वक्तव्यं तन्निषेधितुम् ॥”
अर्थात्- धर्मध्वंस, क्रियालोप, स्वसिद्धान्त का नाश, इस प्रकार की परिस्थिति जब प्रकट हो जाए तो किसी की आज्ञा के बिना, किसी को भी बिना पूछे ही स्वयं सक्रिय होकर उस परिस्थिति को स्पष्ट रूप में, स्पष्ट एवं प्रखर शब्दों में रोकना सत्पुरुषों का दायित्व बनता है।
पूर्व समय में भी राजा, महाराजा के दरबार में जैन मन्त्री सक्रिय थे। कल्पक से लेकर श्रीयक तक नन्द राजा के नौं-नौं मन्त्री थे। तदुपरान्त मन्त्रीश्वर पेथडशा, मन्त्रीश्वर वस्तुपाल-तेजपाल, मन्त्रीश्वर उदयन, सज्जन मन्त्री, बाहड मन्त्री वग़ैरह… वग़ैरह…
इन मन्त्रीश्वरों की सक्रियता के कारण ही शासन पर संकट नहीं आए थे, शेष अन्यत्र जहाँ-जहाँ जैन मन्त्री नहीं थे वहाँ एक के पश्चात् एक ऐसे अनेक संकट बार-बार आए हैं।
वास्तविकता तो ऐसी है कि,
दुर्जनों की सक्रियता और सज्जनों की निष्क्रियता के कारण ही देश और धर्म को अत्यन्त हानि पहुँची है।
“महाभारत का सृजन क्यों हुआ ?
केवल दुर्योधन या दुःशासन की अधमता और पापों की वजह से नहीं किन्तु…
द्रोणाचार्य एवं भीष्म जैसे महारथियों का मौन धारण करना भी इसके लिए कारणभूत था।
रामायण का सृजन क्यों हुआ ?
केवल रावण के वासना रूपी पाप की वजह से नहीं किन्तु,
कुम्भकर्ण जैसे भाई के द्वारा उसे रोका न जाना यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण कारण था।”
भारत देश में करोड़ों हिन्दू (हिन्दू अर्थात् वैदिक सनातन, जैन, बौद्ध आदि धर्मावलम्बी) होने के पश्चात् भी इस देश में विधर्मिओं ने इस देश की आर्थिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक आदि परम्परा एवं धरोहर का अत्यधिक रूप में लाभ उठाया। सैकड़ों वर्षों तक उन्होंने हम पर हुकूमत भी चलायी।
इस घटना के अनेक कारणों में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण यह था हमारे देशवासियों की निष्क्रियता…!
विधर्मिओं के आक्रमण के समय मात्र शूरवीर राजपूत लड़े, बाकी के दूसरे हिन्दू केवल तमाशा देखते रहे।
यदि करोड़ों हिन्दू उस समय हाथ में तलवार लेकर खड़े हो गए होते तो किसी मुस्लिम या क्रिश्चियन की हिम्मत नहीं होती कि इस देश की एक इंच जमीन पर भी पैर रख सकें।
बदनसीबी यह है कि उस समय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और उस वजह से इस देश को बहुत कुछ सहन करना पड़ा।
इसलिए भूतकाल से बोध लेकर, अर्थात् निश्चित रूप से यह संकल्प करना चाहिए कि “मैं शासन के लिए पूर्णरूप से क्रियाशील बनूँगा, शासन की किसी भी बात की शिकायत नहीं करूँगा।”
देहरासर में सामग्री अत्र-तत्र अस्त-व्यस्त पड़ी हुई दिखाई दे तो ट्रस्टी या पुजारी को अनाब-शनाब बोलने के बदले स्वयं उस सामग्री को व्यवस्थित स्थान पर रखने का प्रयोजन करूँगा। आयंबिल शाला, पाठशाला, उपाश्रय, तीर्थस्थान इत्यादि स्थानों पर जहाँ आपको अयोग्य लगे, जहाँ शिकायत करने जैसा लगे वहाँ स्वयं उस समस्या का निराकरण खोजकर उसका समाधान करने का प्रयास करना चाहिए।
किसी एक राजा ने अपनी खेती का समान रूप से बँटवारा करके अपने दोनों राजकुमारों को सौंप दिया, और उनसे कहा कि “आप दोनों के हिस्से में आए हुए खेत में से जो अधिक अनाज उगाएगा वही मेरे राज्य का उत्तराधिकारी बनेगा।”
दोनों ही राजकुमार अधिक अनाज उत्पन्न करने के लिए अपने-अपने खेतों में बहुत मेहनत करने लगे। किन्तु किसी कारणवश छोटे राजकुमार के खेत में ज्येष्ठ राजकुमार की तुलना में अधिक धान्यराशि उत्पन्न हुई।
जिज्ञासावश राजा ने छोटे राजकुमार से धान्यवृद्धि का रहस्य पूछा, तो राजकुमार ने प्रत्युत्तर में कहा,
“राजन् ! बात ऐसी है कि ज्येष्ठ भ्राता अपने खेत में काम करने वाले मजदूरों को हमेशा आदेश देते रहते थे कि ‘ऐसा करो… वैसा करो !’ इसलिए वे लोग भी उनके के हिस्से में आया हुआ कार्य पूरा तन झौंक कर करते थे। लेकिन उनका मन उस काम में नहीं होता था। मैंने भी कार्य उसी प्रकार किया, किन्तु मैं अपने मजदूरों को आदेश इस प्रकार देता था कि ‘चलो हम ये करते हैं… वो करते हैं !’ और ऐसा कहते हुए मैं स्वयं उनके साथ काम करता था जिससे वे मजदूर अपने तन के साथ मन को झौंक कर काम करते थे। और यही वह रहस्य है जिससे मेरी खेती में अनाज की वृद्धि ज्येष्ठ भ्राता से अधिक हुई है।”
यह प्रसंग हम सभी को अत्यन्त सुन्दर सीख एवं बोध देता है कि यदि हमें किसी प्रयोजन का परिणाम उत्कृष्ट चाहिए तो उस प्रयोजन में हमारा स्वयं का “Involvement” आवश्यक है।
सरकार हो या संघ, जहाँ पर आपको कुछ ठीक नहीं लगता है तो आप स्वयं उस system में हस्तक्षेप करें, उस system का हिस्सा बनकर उसे सुधारने का प्रयत्न करें। आपका involvement बढ़ेगा तो जिस परिवर्तन की अपेक्षा आप रख रहे थे वह आपके हाथों से अपने आप ही हो जाएगा।
सम्पत्तिदान से समयदान अधिक महत्त्वूपर्ण हो जाता है।
आप CA हो, Docter हो, Advocate हो, Politician हो… आपने अपने जीवन में जो भी मुकाम हासिल किया है उसका शासन के कार्य हेतु सदुपयोग करें !
आप स्वयं जाकर शासन के लिए समय दें !
यदि प्रत्येक जैन अपने Skills, Arts एवं Knowledge के द्वारा शासन की सेवा करें तो जिनशासन के करोड़ों रूपये, जो अनावश्यक रूप से बर्बाद हो जाते हैं वे बच जाएंगे।
अन्त में,
शासन की सेवा करने का सद्भाग्य सभी को प्राप्त नहीं होता है, इसलिए समय, प्रतिष्ठा, सम्पत्ति का उपयोग स्वयं को फ़रियादी के रूप में प्रस्तुत करने में नहीं अपितु सद्भागी बनने के प्रयोजन में लगाएँ !
इसलिए शास्त्रों में भी कहा है,
“क्रियावान् सः पण्डितः ॥”
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Last Seen :
“हे प्रभु !
आप मुझे जिनशासन का ‘जटायु’ बना दें !
ताकि मैं मेरी शक्ति-सामर्थ्य का विचार न करते हुए जिनशासन की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहूति हर्षोल्लास के साथ दे सकूँ !”
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