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संगठन का प्राण : पारदर्शिता

Updated: Apr 8




अरिहंत के लोकोत्तर शासन की प्राप्ति को सफल बनाने हेतु ‘संघभावना’ पर निरन्तर रूप से स्वाध्याय करना चाहिए।

प्रभु वीर के शासन को ‘संघ’ कहा जाता है।

‘संघ’ अर्थात् समूह, संगठन, समुदाय।

किन्तु… यह अर्थ स्थूल रूप में (अर्थात् सामान्य रूप से) किया गया है।

‘संघ’ यह विश्व की एक ऐसी शक्ति है कि जिसकी तुलना में आने के लिए यदि विश्व के सभी धर्म एकत्र हो जाए, और उन सबकी जो विशेषताएँ हैं उनका गुणाकार किया जाए तो भी वे सब ‘संघ’ के सामने धूल के बराबर हैं।

किन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि, ‘इस संघ भावना को किस प्रकार बनाए रखें ?’

तो इस प्रश्न के उत्तर के रूप में यह लेखमाला चल रही है।

संघ भावना के लिए Unity चाहिए।

U = Understanding

N = No Negatives

I = Involvement

और अब बात कर रहे हैं…  

“T = Transparency

इस Transparency के 3 महत्त्वपूर्ण पहलुओं को देखते हैं।

Transparency in Opinion

संघ या संगठन खूब अच्छी तरह से चलते हैं। संस्था, मंडल या समूह अत्यन्त सक्रिय होकर बहुत से अच्छे कार्यों को साकार करते हैं, परन्तु इसके बावजूद भी इन संस्था, मंडल, समूह या संगठन में से दूसरी कोई संस्था इनके समक्ष खड़ी हो जाती है, और इसका कारण है ‘Difference of opinion’

दो हठधर्मियों के मत जब भिन्न-भिन्न प्रस्तुत होने लगते हैं तब मतभेद और मनभेद आने लगते हैं, तत् पश्चात् इस मत-भिन्नता का परिवर्तन ‘अहम् या खोखली प्रतिष्ठा अर्थात् Ego’ में तब्दील हो जाता है तब संघ, संस्था, मंडल, समूह या संगठन इत्यादि खंडित हो जाते हैं, एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं।

इसमें सब से पहली और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि,

अपने व्यक्तिगत विचार, मत या अभिप्रायों को सबके ऊपर जबरदस्ती थोपना नहीं चाहिए। उन विचारों को व्यक्तिगत ही रहने दें, उन्हें सार्वजनिक बनाने की कतई चेष्टा न करें !

क्योंकि जब भी आप अपने मत या विचारों को संघ या संस्था के मत वा विचारों में तब्दील करने का आग्रह रखते हैं तब विवाद का सृजन होने लगता है, अखण्डता खण्डित होने लगती है।

व्यक्तिगत विचार और संस्थाकीय विचार यह दोनों भिन्न ध्रुव हैं, यह आपके जहन में स्पष्ट होना चाहिए।

आप जिस किसी का अनुकरण करते हैं उनके नियमों को जब आप संस्था या संघ के नियमों में तब्दील करने की ज़िद पर अड़े रहते हैं तब से संघ विभाजन का आरम्भ होता है।

पूज्यपाद गीतार्थमूर्धन्य गच्छाधिपति गुरुमाँ श्री जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा का ऐसा फरमान था कि,

“जो संघ में अपने मताग्रह के लिए विवाद उत्पन्न करके अशान्ति का निर्माण करते हैं और संघ विभाजन का जघन्य पाप करते हैं, उन्हें भवान्तर में जिनशासन की प्राप्ति नहीं होती, वे दुर्लभबोधि बनते हैं।”

और यह कोई सामान्य बात नहीं है, खतरे की घंटी के समान है।

इसलिए सतर्क हो जाएँ ! संघ में वाद-विवाद करने वालों ! अपने गुरुओं के मत-सिद्धान्तों के नाम पर संक्लेश उत्पन्न करने वालों ! (भ्रामक) सत्य के नाम पर संघ में असमाधि उत्पन्न करने वालों ! सावधान ! ! !

Transparency in Character

संघ, संस्था, मंडल, समूह या संगठन में कार्यरत व्यक्तियों को अपने चरित्र को हाथी के दाँत के जैसा नहीं रखना चाहिए।

मन में अलग, वचन में अलग, और काया (वर्तन) में अलग।

नहीं… ऐसा कदापि नहीं चलेगा !

ऐसा करने से विश्वासघात होता है। अपने कुछेक काम निकालने के लिए ऐसा कपट करने की सख्त मनाही है।

“धम्मे माया नो माया ॥” अर्थात् धर्म के लिए की गई माया, माया नहीं होती।

यह सूत्र धर्म की रक्षा आदि के प्रसंग पर विचारणीय है। उसमें भी गीतार्थ अथवा गीतार्थ निश्रित व्यक्तियों के लिए ही, सबके लिए यह सूत्र नियत नहीं है।

केवल अपना अहम्, झूठी दांभिकता के संरक्षण हेतु, अपना प्रभाव दिखाने के लिए अथवा कोई व्यक्तिगत कार्य को अंजाम देने के लिए माया कतई न करें !

‘विश्वास’ संघ का महत्त्वपूर्ण परिबल है, संघ की नींव है।

माया से क्षणिक् रूप के लाभ अवश्य प्राप्त कर सकते हैं किन्तु यदि विश्वास रूपी श्रद्धा पर आघात हो गया तो उससे संघ का भविष्य जोखिम में आ जाता है।

इसलिए जो है उसे स्पष्ट रखें, पारदर्शी रखें !

विचार, उच्चार और आचार में किसी भी प्रकार का अन्तर ना रखें, इसके फलस्वरूप बचे हुए शेष विश्वास से संघ-संस्था में प्राण-ज्योति प्रज्वलित हो सकती है।

Transparency in Account

संघ-संस्था की बड़ी-बड़ी पेढी-office में बहुत बड़े-बड़े व्यवहार, लेन-देन और कारोबार होते हैं।

किन्तु कहीं-कहीं ऐसा भी होता है कि गीतार्थ गुरु के मार्गदर्शन के बिना अपने मन में आए ऐसा कारोबार करने से हिसाब में फर्क आ जाता है।

और कहीं-कहीं अधिक आवक होने से वहाँ पर किसी को किसी बात की परवाह नहीं होती, ‘यहाँ पर सब चलता है… यहाँ ऐसे ही चलता है…’ जैसे प्रवृत्तियाँ नित्य हो जाती हैं।

हाँ, लेकिन सभी जगह पर ऐसा ही होता है ऐसा बिल्कुल नहीं है।

बहुत से संघ-संस्थाओं में ऐसे भी ट्रस्टी देखे हैं कि जो सभी खातों के हिसाब, व्यवहार अपने मुख पर कंठस्थ रखते हैं, बस उन्हें पूछने का अवकाश है, चुटकी भर में वे सब हिसाब पेश कर सकते हैं।

जिनशासन के सात क्षेत्र- अनुकम्पा, जीवदया आदि की द्रव्य व्यवस्था शास्त्रों में वर्णित है।

उन-उन खातों के व्यवस्थापकों को अथवा देख-रेख करने वालों को अत्यन्त सतर्कता रखते हुए उस द्रव्य का यथायोग्य उपयोग उसी खाते के कार्यों के लिए ही हो ऐसी कड़क नीति एवं सूक्ष्मदृष्टि से ध्यान रखना चाहिए। संघ-संस्था की इज्ज़त-प्रतिष्ठा उनके कारोबार-व्यवहार के साथ जुड़ी होती है।

जहाँ लोगों को जरा सी भी अव्यवस्था, कारोबारी में गैरवर्तन या अन्धाधुन्ध व्यवहार की गन्ध आती है वहाँ लोग दान देने के लिए लाख दफ़ा सोचते हैं। इसलिए कारोबारी व्यवस्था तन्त्र अत्यन्त पारदर्शी, स्वच्छ एवं पवित्र रखें। इससे आप भी आपका मस्तक सदा गौरव से ऊँचा उठाकर चल सकेंगे।

 

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“अक्सर शबनम में नहलाए गुल-ए-बदन, दाग-ए-आलम कत्तई बर्दाश्त जो नहीं…।“

(“पुष्प को थोड़ी भी मलिनता पसन्द नहीं, इसिलीए वह सदा शबनम से स्नान करता है।”)

 

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