Real Need
संघ की व्यक्तिगत या समष्टिगत, सभी समस्याओं का समाधान वस्तुपाल है। बस, वस्तुपाल को तैयार करो, बाकी सब कुछ वस्तुपाल देख लेगा। हम और सब कुछ खड़ा कर देते हैं, फिर वस्तुपाल को खोजने के लिए निकल पड़ते हैं। पर वस्तुपाल ढूंढने पर भी नहीं मिल पाता, क्योंकि हमने वस्तुपाल को खड़ा किया ही नहीं। बाद में खड़ा किया हुआ सब कुछ या तो धराशायी हो जाता है, या वह चलता भी हो तो भी उसका नायक वस्तुपाल ना होने की वजह से दूसरा ही कुछ चलता है।
ओ वस्तुपाल! आज आपका अकाल है। आप आ जाओ। एक दिन के लिए भी आ जाओ। हमें आपकी शासन निष्ठा दे जाओ, हमें आपकी परिणति दे जाओ। हमें आपके जैसा गुरु समर्पण दे जाओ। हमें आपके जैसी निःस्पृहता दे जाओ। हमें आपके जैसा जैनत्व दे जाओ। हमारे पास अस्तित्व नहीं है, अस्तित्वाभिमान है। हमें आपका अस्तित्व दे जाओ।
पू.आ. वर्धमानसूरिजी देव बन गये। वस्तुपाल के प्रति के अहोभाव के कारण वे कौन-सी गति में गये, वह जानने का प्रयास किया। पर अपने ज्ञान से वह जान न सके, इसलिए वे श्री सीमंधर स्वामी भगवान के पास गये और पूछा।
प्रभु ने कहा,
अत्रैव पुष्कलावत्यां, विजयायामजायत।
नगर्यां पुण्डरिकिण्यां, पुण्डरिक इव श्रिय:।।
कुरूचन्दा्भिधो राजा, राजान्यावलिवन्दित:
सम्यगदृष्टि शिरोरत्नं, सत्कीर्तिसुरभिस्थिति:।।
यही पुष्करावर्त विजय में पुंडरीकिणी नगरी में जैसे लक्ष्मी का निवास हो, ऐसा वह वस्तुपाल कुरूचन्द्र नामक राजा बना है। उन्हें राजाओं की श्रेणी वंदन करती है, वे समितियों में शिरोमणि हैं और कीर्ति से शोभायमान हैं।
आखिर में संयम लेकर वह राजा, सर्वोत्कृष्ट अनुत्तर देवलोक में ‘विजय’ विमान में महर्द्धिक बनेगा। वहाँ से च्यवन करके फिर से राजा बनेगा, संयम लेगा और मोक्ष में जायेगा।
बात ‘अस्तित्व’ की है। शांत चित्त से विचार कीजिये। कैसा होगा वस्तुपाल का अस्तित्व! कैसा परलोक! कैसा भविष्य! खुद श्री सीमंधर स्वामी प्रशंसा करते हैं, ऐसी भूमिका! अनंत भवचक्र का चुटकी में पूर्णविराम लाने वाला परिणाम। कैसा होगा उनका मन। कैसी होगी उनकी विचारधारा। कैसा होगा उनका हृदय। कैसी होगी उनकी विशुद्धि।
एक ऐरावत हाथी निराभिमानी हो, और एक सूअर अभिमान से भरा हुआ हो, यह कैसा लगेगा? वस्तुपाल और हमारे साथ ऐसा ही कुछ हुआ है, क्या ऐसा नहीं लगता? हमारे भीतर कितने दोषों की विष्टा है, कितनी विचित्रताओ की गंदगी है, कितनी हलक में अटकी हड्डियां है, कितने अतिचारों और अनाचारों की दुर्गंध है, क्या हम यह सब नहीं जानते? फिर भी हमें हमारे अस्तित्व का अभिमान होता है? सूअर जुगुप्सनीय होता है, पर यदि वह खुद को मिली हुई विष्टा और गंदगी का अभिमान करे, तो यह ज्यादा जुगुप्सनीय लगता है। हम खराब तो हैं ही, पर हम अस्तित्वाभिमान करेंगे तो हम और ज्यादा खराब बन जाएंगे।
श्री सीमंधर स्वामी भगवान से दूसरा प्रश्न पूछा गया, ‘श्रद्धावर्या अनुपमा देवी की कौन-सी गति हुई है?’ प्रभु ने कहा, “वे यहाँ ही श्रेष्ठीपुत्री हुईं। आठ वर्ष की आयु में हमारे पास दीक्षा ली, घाती कर्मों का क्षय किया है, और अभी यहाँ पर केवली पर्षदा में विराजमान हैं।
अनुपमा देवी का देव-गुरु बहुमान, आबू के देलवाड़ा के बेनमून जिनालय बनाने में उन्होंने अपनी डाली हुई जान, महामूल्यवान साड़ी के पल्लू से महात्मा का सीरा वाला पात्रा पोंछने की उनकी सहज भक्ति…
याद आता है, योगदृष्टि समुच्चय:
गुरुभक्ति प्रभावेन, तीर्थकृद्दर्शनम् मतम्।
समापत्त्यादिभेदेन, निर्वाणेकनिबन्धनम्।।
गुरुभक्ति के प्रभाव से साक्षात् तीर्थंकर का दर्शन होता है, तीर्थंकरों के गुणों की प्राप्ति होती है, और अवश्य मोक्ष मिलता है।
सीमंधर स्वामी को तीसरा प्रश्न पूछा गया।
“तेजपाल” कौनसी गति में जाएंगे?
प्रभु ने जवाब दिया, “वे पहले देवलोक में समकिती देव बनेंगे। इन्दु जैसी उनकी ऋद्धि होगी और क्रमश: चौथे भव में उनका भी मोक्ष होगा।“
हम स्तब्ध हो जायें ऐसी बात है। अपने आपसे पूछिए, इनमें हम कहाँ? शांति से इन महापुरुषों का निरीक्षण करेंगे, तो हमारा सारा अस्तित्वाभिमान पिघल जायेगा, अहं की अंतिम मृत्यु होगी, जिसके बाद पुनर्जन्म नहीं होगा। उसे बौद्ध दर्शन का मोक्ष कह सकते हैं। जिसमें क्षण सन्तति की अंतिम क्षण नष्ट हो जाती है, और फिर उत्पत्ति नहीं होती। उसके बाद हमारा जैन दर्शन का मोक्ष हो सकेगा। अहं का सम्पूर्ण नाश- हमारे शुद्ध आत्म स्वरूप का उत्पाद बनेगा।
जब तक अहं है, तब तक हमारी आत्मा की भी अवनति है। नये पंथ मोक्षमार्ग नहीं है, उसका महत्वपूर्ण कारण यह है, कि वे कम-ज्यादा अंश से संघ विरुद्ध हैं। यदि आज के नये ग्रुप, मंडल, परिवार आदि भी संघ विरुद्ध हो जाए तो, वह भी मोक्षमार्ग नहीं है।
ग्रुप्स
ग्रुप यदि संघ के अंतर्गत हो, संघ की शक्ति बढ़ाने वाले हो, संघ के प्रतिर्स्पधी नहीं होने के भाव को खड़े करने वाले हो तो ठीक, लेकिन संघ से जुड़े हुए को अलग करने वाले हो, तो वैसे ग्रुप्स को ग्रुप्स नहीं कहा जाता, अनुमोदनीय भी नहीं कहा जायेगा। बल्कि जैनत्व विरोधी और शोचनीय कहा जायेगा।
हमारे और संघ के बीच जो आ जाता है, यह हमारा जहर है। कभी ‘नाम’ जहर बनता है, कभी ‘पैसा’ जहर बनता है, कभी ‘पोस्ट’ जहर बनती है, कभी ‘इगो’ जहर बनता है।
एक विचार ऐसा आता है कि, क्यों ऐसा नहीं होता, कि एक बिना ग्रुप का ग्रुप हो, जो सीधे संघ के साथ जुड़ जाये? जिसका ना कोई नाम हो, जिसमें ना कोई पद हो, जिसका ना कोई एकाउन्ट हो, संघ के हर एक प्रसंग को घर का प्रसंग मानकर उसकी शोभा बढ़ाये। शायद इसी ग्रुप को भगवान संघ कहते हैं। भगवान ने इसी की ही तो स्थापना की है।
अलग नाम रखना एकांत से गलत नहीं है। Depend, कि वह पुल बनता है, या दीवार बनता है? पर यदि नाम अलग तो हम अलग, संघ से भी अलग और दूसरे ग्रुप से भी अलग। ऐसा भाव आ जाए तो वहाँ अलग नाम गलत साबित होता है।
वह बिना नाम का ग्रुप बिना प्रसंग के भी दूसरी सेवा-प्रवृत्ति करे। मान लो उसमें पैसे की भी जरूरत पड़े, तो भी इस ग्रुप को दान के पैसे को छूने की मनाही हो। मान लो कि यह ग्रुप कोई परीक्षा ले, और उसमें इनाम देने हों, तो उसके दाता ही कवर लेकर आयें और विजेताओं को इनाम दें। मान लो कि इनाम के रूप में वस्तुएँ देनी हो, तो दाता ही उस स्टोर वाले को उसका मूल्य चुका दे। ग्रुप के नाम से एक भी रूपये का परिग्रह एक क्षण के लिए भी ना हो।
साथ ही ग्रुप में कोई पद न हो। अपने संघ में जो गुरु भगवंत आये उनके और संघ के जो अध्यक्ष वगैरह हो, उनके निर्देशों के अनुसार यह ग्रुप कार्य करता रहे।
मुझे पता है, अहं, नाम, पैसा, पोस्ट आदि के कारण से ही प्रवृत्ति का उल्लास जगता है। इसी तरह ग्रुप्स बनते हैं और चलते रहते हैं। पर इन सब कारणों से ग्रुप टूटता भी है। संघ के साथ संघर्ष होने के कारण ही यह सब होता है। और ग्रुप चलता हो, तभी भी संक्लेश होने का, मानसिक कलुषितता होने के भी ये ही कारण होते हैं।
सीधा संघ के साथ जुड़ाव, भावना भरी संघभावना, अहं शून्य हृदय, निःस्वार्थ सेवा, समर्पण भरी सेवा क्यों नहीं ?
सारा अभिमान निकाल फेंको। हृदय को संघ संवेदना से भर दो। ‘वस्तुपाल’ बनो। नख-सिख वस्तुपाल। जिनशासन का हार्द यहीं है। संघ का अभ्युदय भी यही है। और आत्मा का कल्याण भी यही है। हृदय में संघ नहीं, तो कुछ भी नहीं है। और संघ है तो सब कुछ है।
संघ संवेदना संकल्प
संघ जीवंत श्री महावीर स्वामी है।
संघ साक्षात् श्री सीमंधर स्वामी है।
संघ की यथाशक्ति आराधना हो
इसलिए मैं यह संकल्प करता हूँ कि,
दिन की Minimum 10 मिनट संघ की किसी भी प्रकार की सेवा के लिए निकालूँगा।
सप्ताह में एक दिन Minimum 30 मिनट संघ सेवा के लिए निकालूँगा।
कोई भी काम नहीं होगा तो कम से कम संघ परिसर में काजा निकालूँगा।
संघ में होने वाले हर एक प्रसंग को मेरे घर का प्रसंग समझकर उत्सव करूँगा।
संघ का किस तरह अभ्युदय हो उसकी चिंता करूँगा।
संघ के अभ्युदय के लिए मैं तन, मन, धन और समय का यथाशक्ति योगदान जरूर दूँगा।
संघ की किसी भी तकलीफ में मैं आधी रात को भी खड़ा रहूँगा।
कोई भी मतभेद हुआ तो मैं अहं को बीच में नहीं लाऊँगा।
किसी भी नाम, पद, प्रशंसादि की स्पृहा के बिना मैं सेवा करूँगा।
मैं एक ‘गुरु’ को सर पर रखकर, उनके मार्गदर्शन के अनुसार आराधना करुँगा।
संघ के हर सदस्य को मैं आदर से देखूँगा और उनके साथ मधुर व्यवहार करूँगा।
परमतारक, परम श्रद्धेय श्री जिनाज्ञा विरुद्ध लिखा गया हो तो त्रिविध मिच्छा मि दुक्कडम्।
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