एक मंदिर का निर्माण कार्य शुरू था। किसी ने मजदूर को पूछा “तु क्या कर रहा है?“ उसने कहा “पत्थर फोड़ने की मजदूरी कर रहा हूँ“
दूसरे मजदुर से पूछा “तु क्या कर रहा हैं।” मजदूर ने कहा “पेट भरने के लिए मेहनत कर रहा हु।“
तीसरे मजदूर से वही प्रश्न पूछा तो उसने जवाब दिया “जिसके दर्शन से सुख-शांति मिलती है। ऐसे भगवान का मंदिर बनाने के लिए जो सौभाग्य मिला हैं, उसे सफल कर रहा हूँ।”
पहले मजदूर के लिए मंदिर बनाना एक संताप दायक – कष्ट है। दूसरे के लिए वही आजीविका का साधन है, तीसरे के लिए आनंददायी सर्जन – सौभाग्य है।
वैसे हि हम सब जो धर्मक्रियाऐं कर रहे है उसके भी तीन विभाग है।
उदा : आप सब पूजा करते हो उसकी भी ३ विभाग है।
1) क्रिया – पूजा करने की इच्छा नहीं है, परंतु घर से डांट कर पूजा – क्रिया करने के लिए भेजा है, इसलिए पूजा – क्रिया कर रहा हूँ।
2) मुझे जैन धर्म मिला है। मैं जैन हूँ इसलिए स्वामी-वात्सल्य आदि का भी लाभ उठाता हुँ, तो प्रभु पूजा भी करनी चाहिए इसलिए पूजा कर रहा हूँ।
3) जो अनंत करुणा के सागर है जिन वीतराग परमात्मा के दर्शन अनंतकाल में भी दुर्लभ है, अनंतभवों में भी दुर्लभ है। मेरी जैसी पापी आत्मा को पवन बनाने के लिए परम पावन धर्म क्रिया करने का मुझे सौभाग्य मिल रहा है इसलिए में पूजा कर रहा हूँ।
क्रिया एक ही है किन्तु भावों में तरतमता आयी है इसलिए क्रिया के स्वरूप और क्रिया के रूप में तरतमता आनी ही चाहिए।
पहले के लिए प्रभुपूजा मात्र संताप है।
दूसरे के लिए प्रभुपूजा – जैन धर्म का निर्वाह = समजौता है
तीसरे के लिए प्रभुपूजा आनंददायी परम सौभा-ग्य है।
अब हमें केवल पूजा करते समय नहीं, धर्मक्रीया करते समय भी हमें कौनसे विभाग में जाना है, ये हमारे हाथ में है।
आओ संकल्प करे…
अपनी धर्मक्रिया संताप-समजौता में हो रही है तो धर्मक्रिया को सौभाग्य में परिवर्तित करना है।
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