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पूज्यपाद सुविशाल गच्छाधिपति श्री जयघोषसूरिजी महाराज अर्थात्… नौं-नौं सरोवरों के जलधि
श्री जिनेश्वर की कृपा का सरोवर…
श्री प्रेम-भुवनभानुसूरि गुरुवर की कृपा-आशिष का सरोवर…
माताश्री कान्ताबेन और पिताश्री मफतभाई के आशीर्वाद का सरोवर…
अशुभ भावों के संवर का सरोवर…
वैयावृत्य (वेयावच्च) में सत्व का सरोवर…
नश्वर को ईश्वर के द्वार तक ले जाने वाला सरोवर…
शीतल छाया देने वाला तरुवर से सुशोभित सरोवर…
संसाररूपी ज्वर-दाह को समूल नाश करने वाले औषधियों से युक्त शीतल जल का सरोवर…
कषाय रूपी आफतों के भँवरों से उन्मुक्त कराने वाला सरोवर…
“अक्षय सम्पत्ति, आनन्द की प्राप्ति ।
कर लो तृप्ति, पश्चात् भी व्याप्ति ।।”
पूज्यश्री का जीवन अर्थात् आध्यात्मिक वैभवों से सम्पूर्ण जीवन…
अनेक वैभवों से विपुल ऐसे पूज्यश्री के जीवन में से केवल ३ वैभव गाथाओं की दास्ताँ यहाँ पर आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
वैराग्य वैभाव :
14 वर्ष की बाल्यावस्था से प्रारब्ध यह ‘वैराग्य यात्रा’… उन्हें संसारी मोहपाश से मुक्त कर मोक्षमार्ग पर प्रयाण करने हेतु श्रमण बनाती है । और दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा की शुक्ल पक्षी कलाओं की भाँति वृद्धि प्राप्त करते हुए वैराग्य भाव के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान कराती है ।
625से भी अधिक श्रमणों को मोक्ष के ध्रुव स्थान तक पहुँचाने हेतु सार्थवाह बने थे पूज्यश्री ।
मर्मस्पर्शी व्यक्तित्व एवं अनन्त सत्-सत् गुणों के भण्डार होते हुए भी निर्मोही अस्तित्व के आदर्शमूर्ति थे पूज्यश्री ।
पूज्यश्री के तन-मन में वैराग्य का वास था ।
एक अनोखा दृश्य था । जब भी साध्वीजी भगवंत वन्दन करने के लिए आते थे पूज्यश्री की दृष्टि मही पर स्थितप्रज्ञ अवस्था में अचल रहती थी । एक भी श्रमणी के नाम से परिचित नहीं थे पूज्यश्री किन्तु दूसरी ओर श्रमणों के नाम से ही नहीं लेकिन उनके हस्ताक्षर से भी उन्हें पहचान सकते थे ।
और यही था पूज्यश्री का वैराग्य वैभव…
वेयावच्च वैभव :
वर्धमान तपोनिधि आचार्य श्री भुवनभानुसूरि महाराज साहब की निश्रा में पूज्यश्री की आचार्य पदवी के अवसर पर भव्य महोत्सव का आयोजन किया था । जिनभक्ति के ऐसे अलौकिक प्रसंग के लिए अनेक महात्माओं का आगमन हुआ था । उपाश्रय में 40-50 पानी से भरे हुए घडों की व्यवस्था स्वयं पूज्यश्री ने उन सभी महात्माओं के लिए की थी । उन घडों में भरे हुए जल को शीतल करके उन्हें गोचरी की मांडली में रख दिया था ।
जब सभी महात्मा प्रसंग में से पधारें तो यह देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गए कि जिनके आचार्य पदवी के लिए हम सभी उपस्थित हुए हैं, वह पूज्यश्री स्वयं हम सभी महात्माओं का इतने स्नेह भाव से उत्कृष्ट वेयावच्च कर रहे हैं… वाह, क्या भावविभोर दृश्य है ! साधु ! साधु !
लेकिन इतना ही नहीं… जब हेमन्त ऋतु के अत्यन्त असह्य ऐसे शीत काल में महात्माओं के संथारा करने के पश्चात् पूज्यश्री रात को ऊठकर साधु भगवंतो के ऊपर अपनी कम्बल-संथारा-आसन आदि ओढ़ाकर उनकी उन शीत लहरों से रक्षा करते थे और वे स्वयं इस दुःसह्य शीत परिषह को सहन करते थे ।
पूज्यश्री ने कभी भी स्वयं के लिए मोह-माया का पाश सज्ज होने नहीं दिया । स्वार्थ भाव से विमुख होकर पूज्यश्री सदैव बाल-ग्लान-वृद्ध महात्माओं की विशेष वेयावच्च करते थे ।
स्वार्थभाव का त्याग और परार्थभाव की पराकाष्ठा पूज्यश्री के कण-कण में सम्प्रवाहित थी ।
वात्सल्य वैभव :
पूज्यश्री अर्थात् प्रेम-वात्सल्य की वीणा, जो स्वरों के मधुर स्पन्दनों से सदैव अमृतवाणी की वर्षा करती है…
उनकी वात्सल्यरूपी जलधि में सदैव स्नान करने का परम सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है और मैं उसे अपने जीवन की सबसे विशाल एवं समृद्ध उपलब्धि मानता हूँ (ऐसे सद्गुरु के संयोग के लिए मैं मेरे कल्याणकारी मित्रों को सदैव ऋणी रहूँगा) ।
“गुरुमाँ” आज तक इस शब्द को केवल मैंने सुना था किन्तु पूज्यश्री के छत्र-छाया में इस शब्द के स्पर्श ने मेरे हृदय को भावविभोर किया है… प्रफुल्लित किया है । संयम-जीवन की कठोर तपश्चर्या में भी अपने हृदय को निःसीम-सुकुमार-वात्सल्य से परिपूर्ण… कोई किस प्रकार रख सकता है ?
यदि 8-10 लोग भी हमारे पीछे चलने लगे… अपना अनुसरण करने लगे तो तुरन्त अपनी भाषा में ‘अहम्’ की झलक दिखने लगती है… एक प्रकार का अभिमानी तेवर अपने चाल-चलन में आ जाता है । लेकिन जिनके 1-2 नहीं बल्कि 625 शिष्य और हजारों भक्तजन हैं, ऐसे मेरे परमकृपालु पूज्यश्री का हृदय मात्र वात्सल्य की उत्कटता के साथ निरन्तर विशाल जलोदधि के रूप में सभी का स्नेहसिंचन करता था ।
बालकों के साथ बालक जैसे…, शासन के कार्य में युवाओं की स्फूर्ति, श्री संघ की व्यवस्था में प्रौढ पुरन्दर…
जयघोषसूरि महाराजा ! कर्मदेह से युग-युग जीएँ…! कर्मदेह से युग-युग जीएँ…!
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