समता सागर श्रमण भगवान महावीर स्वामी का
- Aacharya Shri Jaysundar Suriji Maharaj Saheb
- May 4, 2020
- 3 min read
Updated: Apr 12, 2024

केवलज्ञान कल्याणक
केवलज्ञान प्राप्त करना आसान नहीं होता। भयंकर राक्षस जैसे अज्ञान और मोह रूपी आन्तरिक शत्रुओं से प्रचण्ड समता और विवेकपूर्वक दीर्घकाल तक लड़कर मोह आदि का क्षय करने के बाद ही केवलज्ञान की अनमोल उपलब्धि मिलती है।
मोह यानी खान-पान, मान, काम आदि व्यसनों के प्रति भारी आकर्षण, जो जीव को बलात् पाप-प्रवृत्तियाँ करवाता है। घोर पाप के उदय और पापवृत्तियों के चलते इष्ट सिद्धि नहीं मिलती, उल्टे भारी नुकसान होता है, फलतः जीव सर पर हाथ रखकर रोता है।
रूदन, शोक का एक प्रकार है। कठोर परिश्रम करने पर भी इच्छित वस्तु की प्राप्ति न हो तो हृदय को आघात पहुँचता है और धीरज का बांध टूटता है, और आँखों से आँसू निकल आते हैं। बालक का जन्म हो, फिर उसे भूख लगे, तो जब तक उसे भोजन न मिले, वह तब तक रोता रहता है। दुनिया में ऐसा कोई विरला ही बालक होता है जो जीवित जन्मे और जन्म के बाद न रोए। या यूँ कहें, कि हँसने का नसीब तो बाद में ही जागृत होता है, प्रकृति पहले रोना ही सिखाती है। रोने वाले को ही मिलता है।
बड़ा आश्चर्य तो यह है, कि तीर्थंकर भगवान का भी चरम भव में जन्म तो हुआ, पर वे रोए नहीं। उन पर आपत्तियों, संकटों और उपसर्गों का पहाड़ टूटा, लेकिन फिर भी प्रभु महावीर नहीं रोए।
आजकल तो यह देखने को मिलता है, कि जरूरत न हो, लेकिन दूसरे को मिला, लेकिन मुझे क्यों नहीं मिला, बस इस शोक से लोग बच्चे की तरह रोने लगते हैं। आँसू तो मानो रुकते ही नहीं।
कोई असह्य बीमारी आती है, तो जी ऊपर-नीचे हो जाता है, उस समय भी व्यक्ति का हृदय रोने लगता है। अरे ! कभी अपने हाथ में आया हुआ लड्डू भी छिन जाए, तो भी व्यक्ति रोने लगता है। कभी अपने खास सम्बन्धी की मृत्यु हो जाए तब भी व्यक्ति सच्चा-झूठा रो देता है। कभी अन्याय हो जाए, तो भी वह रोने लगता है।
दूसरा बड़ा आश्चर्य यह है, कि कभी न रोने वाले भगवान महावीर की आँखें भी एक बार भीग गई थी। अभव्य जीव संगम नामक एक आतंकवादी देव ने प्रभु श्री महावीर को बहुत तंग किया, पीड़ा और तकलीफें दी, आतंक की आँधी में गिराया, गालियाँ दी और मरणान्त उपसर्ग किए। फिर भी भगवान अपने पवित्र शुक्ल ध्यान से लेश मात्र भी चलित नहीं हुए, हिम्मत नहीं हारी और अटूट धीरज धारण किया।
उन्होंने कोई प्रतिकार नहीं किया, क्योंकि उन्हें अपने पूर्वकृत पापकर्मों का सफाया करना था। इसलिए उन्होंने शान्ति से उपसर्ग सहे, अटल – अडिग रहे। संगम देव ने संकटों के पहाड़ के समान कालचक्र इतना जोर से प्रभु पर फेंका कि समतावीर प्रभु घुटने तक जमीन में दब गए। फिर भी उन्हें उस पापी संगम के प्रति जरा भी द्वेष, नफरत या अरुचि उत्पन्न नहीं हुई, एक भी अप-शब्द नहीं कहा और उफ़ तक नहीं किया।
थक-हार कर अन्ततः जब संगम पराजित हाथों से वहाँ से निकला, तब इस आश्चर्य का सृजन हुआ। प्रभु की आँखें नम हुई, अपने पर हुए कष्ट के कारण नहीं, बल्कि संगम के भयावह भविष्य और कष्ट का विचार करके हुई।
उपसर्गो बहु काळ करीने, संगम पाछो वळियो,
प्रभु हैये ते पापी प्रत्ये उमट्यो करूणा दरियो;
मारे काज आ जीव बिचारो काळ घणुं ए भटकशे,
दुःख अनंता सहेशे तो पण अंत कदि’ नवि लहेशे।
ते दिन प्रभु आंसू भीना रे, वीरना लोचनियां में दीठा !
प्रभु ! आपको केवलज्ञान तो बाद में मिला, किन्तु उससे पहले ही आपने हमें मुँह बन्द रखकर भी बहुत बड़ा बोधपाठ दिया :
जातनी पीडाओना रोदणा रोता नहीं,
बीजाओनी पीडाओमां चेनथी सोता नहीं।
धन्य हो प्रभु वीर को ! धन्य हो उनकी करूणास्रोत को !
वन्दन हो श्री वीर वर्द्धमान को !
सहन किया, तो केवलज्ञान मिला, और शासन की स्थापना करके समस्त जीवों को दुःख मुक्ति और पाप मुक्ति का मार्ग बतलाया।
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