माता त्रिशला के हृदय की संवेदना इतनी गहरी थी,
उनका पुत्र-राग इतना था,
कि पुत्र-वियोग आयुष्य को उपक्रांत कर सकता था…।
प्रभु खुद को त्रिशला-पुत्र के रूप में नहीं देख रहे है।
पुत्रत्व तो शरीर की रचना के साथ बनता है।
शरीर न बना तो पुत्रत्व कैसा?
शरीर बनने से पहले, जो बनाया नहीं जाता,
शरीर मिटने के बाद जिसे बचाया नहीं जाता,
उस पुत्रत्व की अवस्था से प्रभु पराड़्मुख है।
प्रभु तो खुद को खुद में ही प्राप्त है।
वे खुद ‘वो’ है, जिसे न बनाना पड़ता है, न बचाना पड़ता है।
वो सिर्फ ‘होता’ है…।
प्रभु खुद की न तो पुत्र रूप में आस्था रखते है।
न तो त्रिशला रानी के जीव को माता के रूप में स्वीकृत करते है।
प्रभु उन्हें भी शुद्ध चैतन्य रूप में ही देखते है।
और उन्होंने खुद को माता के रूप में जाना/देखा तो,
प्रभु उनकी उस अवस्था का भी स्वीकार करते है।
त्रिशला माता ने प्रभु को पुत्र रूप में माना है
तो प्रभु उसका भी औचित्य करते है, निर्लेप रहकर…,
किसी की मान्यता को अपना लेना औचित्य नहीं है।
पर, किसी की मान्यता को उसकी अवस्था समझ कर उसमें
राग-द्वेष न करना वो ही औचित्य है…।
उपयोग (ज्ञान) जिसको लेकर ‘मैं और मेरा’ ये भाव खड़ा कर देता है।
वो ही उसकी जीवन-अवस्था बन जाती है।
वो दरअसल में भ्रामक है,
पर ऐसी भ्रामक-अवस्था में से गुजरना,
ये भी जीवों का क्रम है, क्रम स्वयंसंचालित है।
और भ्रम से मुक्त होना ये भी जीवों का क्रम है…।
क्रम में हस्तक्षेप करना भी एक प्रकार की हिंसा है।
ज्ञानी जानते है, किसका क्या क्रम चल रहा है,
तदनुसार प्रतिक्रिया देते है वे,
इसीलिए अयोग्य को धर्म नहीं देते।
प्रभु को लेकर त्रिशला रानी के मन में मेरापन का भाव जो उठा,
वो इतना गहन था कि जीवन-अवस्था में रूपांत-रित हो गया था।
‘मेरा न रहे तो मैं ही ना रहूँ’ ममत्व के ये भाव आयुष्य को झटका दे सकते थे।
तो प्रभु ने उस क्रम में हस्तक्षेप करना नहीं चाहा।
प्रभु से अभिग्रह हो गया कि,
जब तक त्रिशला रानी माता की अवस्था में है,
तब तक मैं गृहत्याग नहीं करूंगा…।
प्रभु की वो दशा है कि वैराग्य को चारित्र में परिवर्तित होने की
घटना को विलंबित करने के लिए अभिग्रह लेना पड़ा।
हम पूरे उल्टे है, हमें तो चारित्र में वैराग्य का प्रवेश कराने के लिए
अभिग्रह की जरूर पड़ती है…।
अभिग्रह से प्रभु घटना को नहीं बदल रहे थे,
घटना इस ही प्रकार से होनी थी।
जिसमें अभिग्रह लेना भी शामिल था,
उसे प्रभु जान रहे थे, साक्षी थे,
ये नियतिवाद नहीं अपितु सर्वस्वीकार की साधना थी।
जो अस्तित्व के आस्वाद से आविर्भूत हुई थी।
प्रभु !
आप गर्भ में रहकर भी आत्मा में रह रहे थे,
ओर सर्वस्वीकार की साधना सहज आराधन कर रहे थे,
हम दूसरे गर्भ में जाने की उम्र तक शरीर में ही आसक्त रह जाते है।
ओर छोटी-मोटी घटनाओं की प्रतिक्रिया करके संक्लिष्ट बन जाते है।
प्रभु !
आपका जीवन हमारे लिए प्रेरणा स्रोत बनता रहे!
हम अंतर्मुखी बने, सर्वस्वीकार करें !!!
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