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सहज क्षमा का धारक मैं युधिष्ठिर हूँ

Updated: Apr 12




मैं युधिष्ठिर पांच पाण्डवों और सौ कौरवों का सबसे ज्येष्ठ भ्राता हूँ। पुत्र के लक्षण पालणे में दिखाई दे जाते हैं। मेरा परिवार पुण्यशाली था और ऐसे परिवार में मेरे जैसे गुणवान का जन्म हुआ, मानो दूध में शक्कर मिली और शिखर पर ध्वजा खिली। ज्येष्ठ सन्तान के रूप में मुझे हस्तिनापुर का ताज मिला। सत्यशीलता और सौजन्य-शीलता ये मेरे दो सबल हथियार थे, जो दुर्योधन के पास नहीं थे। यद्यपि दुर्योधन भी थोड़ा सौजन्य-शील था, किन्तु उसमें स्वार्थ की गन्ध आती थी। मैं जन्म से ही शान्त और धैर्यवान था। मेरा जन्म शुभ-स्वप्नों से सूचित था, मेरे गर्भ में आने के बाद माता कुन्ती को अत्यन्त शुभ विचार आते थे। कभी माता के शुभाशुभ विचारों की असर पुत्र पर पड़ती है, तो कभी पुत्र के शुभाशुभ पुण्य की असर माता पर पड़ती है।

चतुर्भंगी करें तो :

(1) उत्तम माता – उत्तम पुत्र,

(2) उत्तम माता – मध्यम पुत्र,

(3) मध्यम माता – उत्तम पुत्र,

(4) अधम माता – अधम पुत्र,

माता उत्तम हो तो पुत्र पर उसकी अच्छी असर होती है, और गर्भ यदि उत्तम हो तो उसकी असर भी माता के आचार-विचारों पर पड़ती है। दुर्योधन की माता गान्धारी उत्तम थी। बेशक दुर्योधन अधम था, लेकिन मैंने कभी भी अपने जीवन में दुर्योधन को अधम के रूप में नहीं देखा, यही मेरी महानता थी। इसके विपरीत दुर्योधन मुझे मार डालने के विचारों में रहता था। जहाँ दूसरे के बारे में विचार नहीं, वहाँ अधमता पनपती है।

शास्त्रग्रन्थों में 

(1) अपकारी के प्रति क्षमा,

(2) उपकारी के साथ क्षमा,

(3) विपाक क्षमा,

(4) आज्ञा क्षमा,

(5) स्वाभाविक क्षमा 

यह पांच प्रकार की क्षमा बताई गई है। इनमें पांचवीं स्वाभाविक क्षमा को उत्तम ही नहीं अपितु सर्वोत्तम कहा गया है। यह क्षमा मुझमें जन्मजात थी। जो क्षमा उत्तम साधु में होती है, वह क्षमा गुण मुझ में था। ऐसी क्षमा, सत्यनिष्ठा और वचन पालकता जैसे गुणों के कारण लोग मुझे धर्मराज कहते थे। मैं वास्तव में धर्मराज ही था। 

एक सत्य घटना बताता हूँ :

एक बार जब हम वनवास में थे, तो हमें मार डालने के प्लान के साथ वन में दुर्योधन, कर्ण और उनकी पूरी पलटन उतर गई। उन्होंने वन में किसी विद्याधर के महल पर जबरदस्ती कब्ज़ा किया, तो विद्याधर ने अपनी सेना के साथ उन पर हमला करके दुर्योधन आदि सबको बन्दी बनाकर एक कमरे में बन्द कर दिया। इस बात का पता दुर्योधन की पत्नी भानुमति को चला, तो वह भीष्म पितामह के पास गई। पितामह बोले, कि तेरे पति को छुड़ाने की ताकत मात्र पाण्डवों में ही है, इसलिए तुम उनकी शरण लो।

भानुमति वन में हमारे पास आई। भीम और अर्जुन तो उसकी बात सुनते ही आक्रोश में आ गए, कि जो हमें मारने आया था, उसे किसी भी हालत में नहीं बचाना चाहिए। किन्तु मैं तो धर्मराज था, इसलिए भानुमति की सहायता करने का मैंने निर्णय लिया। जिस विद्याधर ने दुर्योधन आदि को बन्दी बनाया था, वह अर्जुन का मित्र था, इसलिए मैंने यह कार्य अर्जुन को सौंपा। अर्जुन आज्ञाकारी और बड़ों के प्रति विनयवान था। मैंने शेष पाण्डवों को कहा, कि आपस की लड़ाई में हम पांच और दुर्योधन सौ है, लेकिन जब बाहर से आपत्ति आए तो हम एक सौ पांच हैं, सभी एक हैं। फिर अर्जुन उस विद्याधर से मिला और दुर्योधन आदि को उसके बन्धन से छुड़वाया। इस प्रकार दुश्मन को भी सहायक बनने की वृत्ति भी मैंने उदारतापूर्वक अपनाई।

मेरे दो भाई, नकुल और सहदेव की माता माद्री थी और माद्री के भाई मद्रराज शल्य थे। जब युद्ध में हम पाण्डवों ने मद्रराज को अपने पक्ष में जुड़ने का सन्देश भेजा तो मद्रराज स्वयं हमसे मिलने हेतु आए। बहुत समय के बाद मामा-भांजो का मिलना हो रहा था। परस्पर औचित्य करने के बाद मद्रराज ने अपनी बात पर प्रकाश डालते हुए कहा, “युधिष्ठिर ! मुझे तुमसे कहने में शर्म आती है, फिर भी तुम न्यायप्रिय हो, इसलिए प्रेम से मेरी बात सुनना। तुम्हारी ओर से आया हुआ दूत मुझे युद्ध हेतु निमन्त्रण देता, उससे पहले दुर्योधन ने सहायता के लिए बुलावा भेज दिया था। और उसकी बात मैं स्वीकार कर चुका था। इसलिए मैं उसके प्रति वचनबद्ध हूँ।

अब मैं धर्मसंकट में फंस गया हूँ, क्या करूँ ?”

मैंने कहा, “मामाश्री ! आपका वचन योग्य है, आप इस मामले में जरा भी चिन्ता न करें। क्योंकि हमारी ही तरह दुर्योधन भी आपका भांजा होता है। आप उसकी सहायता करें, इसमें मुझे कोई आपत्ती नहीं है। आप खुशी से अपने वचन का पालन कीजिए।”

मेरी यह उदारता देखकर उस समय मद्रराज शल्य नतमस्तक हो गए। सच में पूरे कुरुवंश में यदि कोई खलनायक था, तो वह दुर्योधन ही था, और यदि कोई हीरो था तो धर्मराज के रूप में मैं ही था। यह मेरी बड़ाई नहीं, बल्कि वास्तविकता है।

अभी भी मेरी गुणगरिमा देखनी हो, तो यह कुरुक्षेत्र के मैदान पर भी देखने को मिलेगी। जब कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में दोनों पक्ष अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ सुसज्जित होकर खड़े थे, और युद्ध शुरू होने में एक-दो घड़ी का ही समय था, उस समय अर्जुन ने अपने गाण्डीव धनुष से ऐसा टंकार किया, कि क्षण भर के लिए तो सबके कान बहरे हो गए। किन्तु उसी समय मैं अपने रथ से नीचे उतरा, और एक भी शस्त्र हाथ में लिए बिना, पैदल चलकर प्रतिपक्षी कौरव सेना की और आगे बढ़ा। मुझे इस प्रकार जाते हुए देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। श्रीकृष्ण आदि को भी संशय हुआ, कि कहीं ये धर्मराज इस महासंग्राम के महासंहार को ध्यान में लेकर दुर्योधन को हस्तिनापुर का राज्य सौंपने और स्वयं स्वैच्छिक निवृत्ति लेने तो नहीं जा रहे? दोनों पक्ष के लोगों में ऐसे अनेक तर्क-वितर्क होने लगे।

इतने में मैं कुरुवंश के बड़े भीष्म पितामह के पास पहुँचा, उनके चरण स्पर्श करके उनको भावपूर्वक नमस्कार किया। उसके बाद द्रोणाचार्य और कृपाचार्य आदि गुरुजनों और बड़ों को नमन किया। उस समय मेरा यह श्रेष्ठ कोटि का विनय देखकर भीष्म-द्रोणादि बड़े लोग भी शर्मिन्दा हो गए, और उन्होंने मेरे सर पर हाथ रखकर आशीष दिया, ‘विजयी भवः’ – तुम्हे युद्ध में विजय प्राप्त हो। आशीर्वाद देते समय उनकी ऑंखें भीग गई, और वे विचार करने लगे कि कहाँ युधिष्ठिर और कहाँ दुर्योधन? साक्षात् सत्य और असत्य दोनों की मूर्तियाँ ही देख लो …!

मेरी इस नम्रता से गद्-गद् हो उठे भीष्म पितामह ने मुझसे कहा, “वत्स ! तुम्हारे प्रति मेरा वात्सल्य आज भी उतना ही है, और तुम्हारी भी हमारे प्रति भक्ति वैसी की वैसी ही है। किन्तु हम अत्यन्त लाचार हैं, उसने हमारी ऐसी सेवा की है, कि हम उसे छोड़ नहीं सकते। गलत प्रवाह में बहकर हम अपना सत्य खो चुके हैं। सत्य और न्याय तुम्हारे पक्ष में होने के बावजूद भी हम कायर बनकर असत्य और अन्याय के पक्ष में बैठे हैं। युधिष्ठिर ! दृढ़ विश्वास रखना, तुम्हारी विजय निश्चित है, क्योंकि धर्म और न्याय तुम्हारे साथ है।”

मुझे ऐसे आशीर्वाद क्यों मिले? आपको उस सज्झाय का पद याद है ?

विनय वडो संसारमां जे गुणमां अधिकाई रे,

गरवे गुण जाए गळी, प्राणी जुओ विचारी रे;

मान कर्युं जो रावणे, ते तो रामे मार्यो रे,

दुर्योधन गरवे करी, अंते सवि हार्यो रे.

दुश्मन के पक्ष वाले महारथी भी हमें आशीष दे, यह कैसे सम्भव हो? बस, विनय ही संसार में सबसे बड़ा है। आज भी किसी भी परिवार में बड़ों के प्रति यदि छोटों का ऐसा विनय हो तो वह परिवार चहुँमुखी समृद्ध बनता है।

ये सब हुई मेरे सकारात्मक चित्रण की बात, किन्तु अब मेरा दूसरा छोर भी मैं बता दूँ, जिसे कमजोर कड़ी कहा जा सकता है।

यथार्थ में धर्मराज के रूप में मेरी जगत में श्रेष्ठ पहचान होने के बाद भी अहंकार और जुआ मेरी कमजोर कड़ियाँ थीं। शकुनि मामा को इस बात की पूरी जानकारी थी, इसीलिए मामा ने इन्द्रप्रस्थ में नई दिव्यसभा बनाकर हमें आमन्त्रण भेजा और वहाँ हर थोड़ी दूर पर जुआ खेलने वालों के टोले थे। उनमें से ही एक जुआरी ने मुझे निमन्त्रण दिया कि धर्मराज ! आइए हम जुआ खेलते हैं। पहले तो मैंने आनाकानी की, लेकिन पास में खड़े मामा शकुनि ने मेरे अहंकार को छेड़ते हुए कहा, “आप बाहुबल में अप्रतिम, लेकिन यदि बुद्धिबल में कमजोर हो, तो मत खेलना।” इन शब्दों ने मुझे हिला दिया और मैंने मन ही मन कहा कि बुद्धि-बल में भी हम किसी से कम नहीं, और जुआ शुरू हो गया। शकुनि के पास यान्त्रिक पासे थे, वे मुझे हराते रहे, और मैं लगातार हारता रहा। अन्त में द्रौपदी को भी दांव पर लगाया और हारा। सब जगह हाहाकार मच गया, बस उसी से महाभारत के युद्ध के बिगुल बजने की शुरूआत हुई। 

पूर्व भवों में हर जीव ने धर्म करके सुन्दर गुणों का विकास भी किया होता है, तो अधर्म का आचरण करके दोष भी एकत्र किए होते हैं। तदनुरूप उत्ते-जित निमित्त मिलने से इस जन्म में वे गुण या दोष बाहर प्रकट होते हैं। बड़े लोगों में भी कुछ कमजोरी अवश्य होती है, जो ऐसे समय में बाहर आती है।

मेरा जुए का प्रेम मेरे सभी दुःखों का मूल है, इस बात का मुझे अतिशय आघात था। हमें वनवास की सजा दिलाकर भी शान्त न रहने वाला दुर्योधन हमें मारने के लिए लाक्षागृह दहन आदि के पैंतरे करता था, तब अत्यन्त क्रोधित द्रौपदी मुझे “कायर” जैसे शब्दों से सम्बोधित करके कटाक्ष करती थी। वनवास के अनेक कष्टों से सब परेशान थे। उबड़-खाबड़ रस्तों पर चलते जब पैरों में कोई पत्थर चुभता तो रक्त की धार बहने लगती, कभी भूख के कारण द्रौपदी आदि बेहोश होकर गिर जाते, उस समय भीम सबको उठाकर चलता था। एक रात तो हम सबको पथरीली धरती पर ऐसे ही सोते देखकर रात की चौकीदारी करते हुए भीम फफक-फफक कर रो पड़ा। पांच पाण्डवों की माता कुन्ती और पत्नी द्रौपदी के ये हालात !! फिर भी संघर्ष और संक्लेश की स्थिति में मैं वास्तव में युधिष्ठिर था।

जो युद्ध में स्थिर रहे, जरा भी टस से मस न हो, उसे युधिष्ठिर कहते हैं। 

मेरे भाई, माता और पत्नी जब भी स्थिति असह्य हो जाती तो बेचैन हो उठते, द्रौपदी तो क्रोधावेश में अपने बाल नोचने लगती, छाती और सर पटकती और दुर्योधन को तत्काल खत्म करने की बात करती, उस समय मैं एक ही बात कहता कि “तेरह वर्ष के वनवास का स्वीकार करके ही मुझे हारी हुई द्रौपदी वापिस मिली है। वनवास पूर्ण होने पर हस्तिनापुर की राजगद्दी वापिस मिलेगी। यदि उसमें अन्याय हुआ तो मैं अकेला ही दुर्योधन को मार डालूँगा, किन्तु आज वचनभंग करके यह कार्य नहीं कर सकता। और न ही तुम्हें करने दूँगा। दुर्योधन अधम है, तो क्या हमें भी अधम बन जाना चाहिए? जैसे को तैसा की नीति मुझे स्वीकार नहीं है।

वैसे मेरी एक ही पहचान पर्याप्त है, मानो अनेक तूफानों के बीच अडिग हिमालय की भाँति खड़ा मैं, युधिष्ठिर।

आपको पता ही होगा कि जीवन के अन्त समय में हम पांचों पाण्डवों ने प्रवज्या ली और आसोज शुक्ला पूर्णिमा को 20 करोड़ मुनियों के साथ गिरिराज पर मोक्ष सिधारे।

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