प्राकृतिक चिकित्सालय के अग्रणी श्री लुई कुने ने अपनी पुस्तक ‘आकृति से रोग की पहचान’ में संध्याकालीन भोजन के विषय में विचार प्रगट किए है, जो माननीय हैं।
प्रायः कहा जाता जब जब भूख लगे तब तब भोजन करना चाहिए, किन्तु यह एक प्रकार की पराधीनता और बुरी आदत है । कुसमय में भोजन करने से भूख शान्त होगी परन्तु स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है । अतः अपनी भूख की आदत, समय परिवर्तित करना तथा स्वास्थ्य को सुरक्षित रखना अपने वश की बात है। असमय में लगने वाली भूख वास्तविक और सच्ची नहीं है। सच्ची भूख उस समय लगती है, जब सूर्य उदय के पश्चात नाभि कमल विकसित होता है।
पशु पक्षियों को देखने से विदित होता है कि उन्हें प्रातः काल पूरी भूख लगती है और उस समय वे पूरा भोजन ग्रहण करते हैं। इसका एक प्रबल कारण है जो सूर्य के साथ बहुत संबंध रखता है ।
दिन के दो भाग हैं- एक प्रेरक, दूसरा स्तंभक (Animating and Tranquillising) पूर्वार्ध व उतरार्ध का सूर्य के साथ विकास हास का क्रम रहता है। समस्त सृष्टि को क्रियाशील बनाने के लिए विकास क्रम उत्साहित करता है । प्रत्येक पेड़ पौधे पर प्रातः कालीन सूर्य का प्रभाव पड़ता है । जिस वृक्ष पर धूप नहीं आती उस पर फल नहीं लगते अथवा बहुत कम लगते हैं, परन्तु जहां धूप ठीक तरह आती है, वहां विशेष रूप से फल दिखाई देते हैं। इसी प्रकार मनुष्य पर भी सूर्य का प्रभाव महत्वहीन या अल्प नहीं है। प्रातःकाल खुली हवा में सैर करने से तन, मन प्रफुल्लित होते हैं और सूर्य की किरणों के स्पर्श से विशेष ताजगी का अनुभव होता है ।
मध्याह्न का सूर्य पश्चिम की ओर ढलने लगता है, तो दूसरे भाग का आरम्भ होता है। इसमें स्फूर्ति और शक्ति न्यून प्रतीत होने लगती है। सूर्य के अस्त होने पर सबको विश्राम और निद्रा की आवश्यकता का अनुभव होने लगता है। जबकि प्रातः काल होने पर शरीर में विशेष अनुभव होता है और सभी कार्य तेज वेग से होने लगते हैं।
शरीर की पाचन शक्ति भी प्रभात के समय बलवान होती है। तीसरे प्रहर वह कम हो जाती है तथा सूर्यास्त होने पर उसमें और भी कमी आ जाती है। इससे यह सिद्ध होता हैं कि हमें अपना आहार दिन के प्रथम भाग में ले लेना चाहिए बाद के भाग में भोजन के लिए कुछ अंश शेष रखना चाहिए और सूर्यास्त के पश्चात किसी प्रकार का भोजन नहीं लेना चाहिए ।
वेदवेत्ता सूर्य को तेजोमय मानते हैं। इसमें ऋग् की उपस्थिति में पवित्र होकर सब काम करने चाहिए, सूर्य के अभाव में शुभ काम नहीं करने चाहिए | उनमें भी विशेषतः भोजन तो नहीं करना चाहिए । कारण यह है कि सूर्यास्त होने पर हृदय कमल और नाभि कमल संकुचित हो जाते हैं । सूक्ष्म जीव भोजन में मिश्रित हो जाते हैं । इससे भोजन करने वाले को हानि होती है । अपचन, अजीर्ण तथा अन्य रोग शीघ्र निकल पड़ते हैं । अतः रात्रि भोजन की आदत अपनाने योग्य नहीं है, पड़ गई हो तो वैद्य डाक्टर उसमें सुधार करने का परामर्श देते हैं। रात्रि के समय भोजन करने से पेट भर जाता है । भरे हुए पेट की स्थिति में शरीर को वास्तविक आराम प्राप्त नहीं होता, फलतः प्राप्त स्फूर्ति की जगह आलस्य और प्रमाद ले लेते हैं ।
(Healing By Water) के लेखक श्री. टी. हार्टली हेनेसा A.R.C.A का कथन है कि मानव देह पर सूर्य की रश्मियों का प्रभाव अद्भुत होता है। अतः सूर्यास्त के पूर्व भोजन कर लेना हितकर है और बाद में आराम करना अच्छा है । जहाँ सूर्य का प्रवेश है, वहां डाक्टर वैद्यों का आगमन नहीं हो सकता ।
रसायन शास्त्र, शरीर विज्ञान तथा हाईजीन के भूतपूर्व प्रोफेसर एलबर्ट बेलोज एम. डी. ने The Philosophy Of Eating में लिखा है कि श्रम करने वाले व्यक्ति को अच्छा और पोषक गरिष्ठ भोजन तो तीन बार और वह भी सूर्योदय के पश्चात तथा सूर्यास्त से पहले लेना चाहिए। शाम को सारे दिन के परिश्रम के कारण व्यक्ति श्रांत हो जाता है। उस समय भोजन पेट में जाकर गड़बड़ी पैदा करता है । अतः आरोग्य व पूरी तरह नींद की सुरक्षा तथा स्फूर्तिपूर्ण जीवन जीने के लिए भोजन दिन में ही करना चाहिए ।
डॉ. लैफ्टनेन्ट कर्नल ने Tuber Culousis And The Sun Treatment पुस्तक में सन स्कूल के विवरण के साथ लिखा है कि सन संस्था शाम को समय पर छः बजे भोजन कर लेती है। यह स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त अनुकूल है। सूर्यास्त के बाद का भोजन प्रतिकूल है।
डॉ. एस. पेरेट एम.डी. ने ‘स्वास्थ्य और जीवन’ नामक पुस्तक में एक हृदय रोगी की कहानी का वर्णन करते हुए लिखा है कि इस रोगी को रात्रि भोजन के कारण बहुत बेचैनी थी। हृदय में पीड़ा होती थी। उसके आहार के समय में परिवर्तन करने से स्वास्थ्य में सन्तोष जनक सुधार हुआ। उसने सूर्यास्त के उपरांत भोजन खाना छोड़ दिया, फलतः हृदय आदि ठीक काम करने लगे । दोपहर को कम खाने वाला और रात को ठूस ठूस कर खाने वाला हृदय वेदना का शिकार बन जाता है। इसे ध्यान में रखते हुए डाक्टर भी आहार का समय बदल कर स्वास्थ्य रक्षा का बहुमूल्य परामर्श देते हैं ।
डॉ. रमेशचन्द्र मिश्र ने लिखा है कि भारत में पेट के रोगों के लिए अयुक्त भोजन उसमें भी सूर्यास्त के बाद का भोजन उत्तरदायी है। वे कहते हैं कि बाह्य रूप से स्वस्थ दिखाई देने वाली ४० वर्षीय एक महिला से जब मैंने पूछा तब उसने बताया कि रात को खाने के बाद सोते समय श्वास की पीड़ा होती है और शरीर पसीना हो जाता है, घबराहट होती है। इस से हृदय रोग की शंका हुई और बार बार कार्डियोग्राम लेना पड़ा किन्तु हृदय की किसी बीमारी का पता न चला इस उलझन के लिए डाक्टर ने विचार किया कि यह मेदस्वी महिला श्रम नहीं करती। पराठे और मसालेदार शाक भाजी खाकर सोते हुए अत्यधिक वेदना का अनुभव करती है ।
अतः भोजन का समय सूर्यास्त से पूर्व और तली हुई वस्तु और मसालों का त्याग करके तथा श्रम और व्यायाम का परामर्श देने से दो सप्ताह में उसे पर्याप्त आराम हो गया । अधिकतर रोग रात्रि भोजन तथा अनियमित खान पान से होते हैं। दिन रात पान सुपारी चबाने से, बीड़ी सिगरेट, चाय की आदत से बाद में कैंसर आदि रोग स्वास्थ्य का नाश करते हैं।
रात्रि भोजन के परित्याग से धार्मिक लाभ के साथ साथ शारीरिक लाभ बहुत होता है। यह उभय लोक में सुखकारी हैं। दस दृष्टांत द्वारा दुर्लभ बताया गया यह मानव भव अनन्त पुण्य राशि से प्राप्त हुआ है। उसमें भी चिंतामणि रत्न से अधिक आत्मा का संपूर्ण रुप से अभ्युदय करने वाला सर्वज्ञ भाषित जैन धर्म हमें उपलब्ध हुआ है,
अतः कल्याण की साधना में प्रमाद छोड़ कर रात्रि भोजन आदि सब अभक्ष्यों का त्याग करना चाहिए, जिससे ८४ लाख जीवयोनि के जन्म मरण रुपी दुःख से विमुक्त होकर अजर – अमर – शाश्वत सुख की प्राप्ति हो।
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