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सुख कौन देता है ?

Updated: Apr 12




पिछले लेख में हमने देखा कि जिसमें भारतीयों को बहुत आनंद आता है ऐसी क्रिकेट में अम-रीकनों को ऊब आती है। शक्कर को चखने वालों को चाहे भारतीय हो या चाहे अमरीकन हो… उन दोनों को मिठास का अनुभव होता है। क्योंकि शक्कर का खुद का गुणधर्म मधुरता देने का है।

इस तरह सुख देना, यह क्रिकेट का अपना ही गुण-धर्म होता तो, उसका आस्वाद करने वाला कोई भी हो… भारतीय हो या अमरीकन… दोनों को सुख का ही अनुभव होना चाहिए। पर अमरीकनों को ऐसा अनुभव नहीं होता है। तो हमें समझना चाहिए कि सुख देना यह क्रिकेट का गुणधर्म नहीं है।

प्रश्न : यदि क्रिकेट सुख नहीं देता है, तो भारतीयों को जो सुखानुभव होता है, वह सुख कौन देता है?

उत्तर : अपना Interest… खुद का रस खुद को सुख देता है। भारतीयों को क्रिकेट में रस है, इसलिए उनको क्रिकेट में मजा आता है… अम-रीकनों के क्रिकेट में रस नहीं है, इसलिए उनको क्रिकेट सजा जैसा लगता है। संक्षिप्त में…जिसको जिसमें रस, उसको उसमें आनंद!

सूअर को अशुचि में रस है, इसलिए मानव को उसकी जुगुप्सा होती है, और ऐसी गंदगी में सूअर खुशी के मारे पागल बन जाता है। उसको पाने के लिए, परस्पर लहूलुहान हो जाए तब तक, दूसरे सूअर के साथ हाथापाई करने वह तैयार हो जाता है। इससे कल्पना कर सकते हैं कि उसमें उसे कितना सुख मिलता होगा?

हबसी युवक-युवती दूसरों को काले-काले और कुरूप दिखते है, फिर भी उन युवक-युवती परस्पर एक दूसरे में रूप ही देखते है ना! और उसका आनंद भी लेते ही है ना। 

आज से 15 साल पहले… एक 16-17 साल की युवती ने उस समय के मुताबिक लेटेस्ट फैशन का एक ड्रेस बनवाया… पहना… इतनी ज्यादा खुश हो गई कि एक घंटे तक अपने आप को आईने में देखती ही रह गई… प्रसंग में भी उसका सिक्का जम गया। फिर उस ड्रेस को एकदम सावधानी से अलमारी में रख दिया… संभाला… आज 15 वर्ष के बाद भी वैसे का वैसा Fresh है वह ड्रेस। और फिर भी वह देखने को अच्छा नहीं लगता, उस अब पसंद नहीं आता है। ना ही लोगों को पसंद आता है… ऐसा पुरानी Style का ! Out of dated dress !

गृहस्थ, जिसे सुख के, मनोरंजन के, मौज-मज़ा के  साधन समझते हैं, उनमें से हमारे पास तो एक भी साधन नहीं है। उसका अर्थ यह नहीं है कि, हमारा जीवन सुख और आनंदरहित है। क्योंकि हमें उनमें रस नहीं है। पर हमें स्वाध्याय आदि साधना में रस है, और इससे हमें ऐसा आनंद मिलता है जो, वैभव-विलास से भरपूर सामग्रीओं के बीच भी आप लोगों को नहीं मिलता है। 

कोशा वेश्या की, अत्यंत मादक चित्रों से भरी हुई चित्रशाला, मादक भोजनसामग्री, कोशा वेश्या का मादक शरीर, मादक हावभाव, मादक नृत्य, मादक अंगमरोड़, मादक गीत, मादक संगीत, मादक आलाप…. ऐसे ढे़र सारे मादक परिणामों के बीच में चार-चार महीने रहने पर भी श्री स्थूलिभद्रजी को काम का उन्माद दिल के किसी कोने तक भी स्पर्श नहीं कर पाया था। क्योंकि वे आकंठ स्वाध्याय में रहते थे। इस स्वाध्याय से उन्हें उन मादक परिणामों से कई गुना ज्यादा आनंद-संतोष का अनुभव हो रहा था, इसलिए आसपास नजर दौड़ाने की उनको कभी भी उत्कंठा ही पैदा नहीं होती थी।

इस कोरोना लॉकडाउन के काल में श्रमण-श्रमणी भगवंत को लगभग बाहर कहीं भी जाना बनता नहीं था। बाहर से लगभग किसी गृहस्थ को आना-जाना नहीं रहता था। फिर भी किसी भी तरह की थकान जैसा नहीं लगता था। ऊपर से… सामान्य दिनों से बहुत ही ज्यादा स्वाध्याय होने से आनंद और भी बढ़ गया था।

ज्ञान-ध्यान-क्रिया साधतां काढे पूर्वना काळ….

(ज्ञान ध्यान और क्रिया की साधना में पूर्व समय (यानी 70000560 अरब वर्ष) जो बिताते हैं)

पूर्व का काल मतलब अरबों-खरबों वर्षों का काल….! पर इस ज्ञान आदि में खुद को तीव्र रस होने के कारण उतना विशेष आनंदानुभव होता है कि इतना दीर्घकाल भी कहाँ बीत जाता है, उसका पता भी नहीं चलता है।

हमारी बात यह है कि, वस्तु या व्यक्ति (प्रसंग) सुख नहीं देते, पर हमारा खुद का रस, खुद की रूचि ही सुख देती है। इसलिए जिस चीज में किसी एक को बहुत आनंद आता हो, उसमें यदि दूसरे व्यक्ति को रूचि न हो तो उसे मात्र फीकापन ही लगता है।

इसलिए यह तय हो गया कि, 

जिसमें रस, उसमें आनंद… 

अनादिकाल से जीव को पाँचों इन्द्रियों के रूप-रस-गंध-स्पर्श-शब्द… इन विषयों में और तद-नुसार कषायों के सेवन में रस है। यानी कि, सांसारिक जीवों को रूप आदि को भोगने में ही मज़ा आती है। पर यह एक ऐसी मजा है, जिसकी सजा बहुत ही भयंकर होती है।

परवाना शमा की जगमगाती चमकती रोशनी में पागल बनकर उसे भोगने को जाता है और अपने रंगबिरंगी अस्तित्व को खाक कर डालता है।

कुछ साल पहले चीली की एक खाई में धरती से 2000 फूट की गहराई में 33 मजदूर काम कर रहे थे। एक मजदूर का बाहर निकलने का अवसर था। बाहर निकलने का एक ही मार्ग था। उतने में उसने एक एकदम Colourful Butterfly-तितली को देखा। उसके Colours देखने में उसकी दृष्टि स्थिर हो गई। बाहर निकलने की प्रक्रिया 30-40 सेकंड के लिए थम गई। उसी ही दरमियान एक हजार टन वजन की शिला धस गई। उसका बाहर निकलने की मार्ग बंद हो गया। वह मजदूर बाहर नहीं निकल सका और बाकी के 32 के साथ वह भी फँस गया। उन मजदूरों ने और पूरे विश्व ने ऐसा ही मान लिया था कि 2000 फूट की गहराई में फंसे हुए ये मजदूर अब नहीं बच सकेंगे।

वो तो वहां के प्रमुख ने भारी दिलचस्पी लेकर Rescue Operation करवाया। 2000 फूट धरती के स्तर में Drilling Machine से छिद्र करके उन मजदूरों को बाहर निकाला। 70 दिन जमीन के अंदर रहने के बाद आखिरी मजदूर बाहर आया। उसे 70 वें दिन सूर्य के दर्शन हुए।

तितली के Colours में आंखों को – मन को – जीव को मिली थी थोड़ी-क्षणिक-तुच्छ-मजा… और नतीजे से जीवन के बलिदान देने की आयी हुई नौबत तक की सजा।

ऐसा ही हर एक इन्द्रिय के लिए समझना चाहिए। 

प्रश्न : हम तो रोज विषयों को भोगते रहते हैं, हमें तो ऐसा कोई भी अनुभव नहीं हुआ है।

उतर : TV पर Live Telecast हो रही IPL की मैचों में आंख-कान-मन पागल हो जाता है… परिणाम.

  1. मैच अचानक पलटी मारती है तब  B.P. के द्वारा  Heart Attack का शिलान्यास हो जाता है।

  1. र में पधारे हुए विशेष मेहमान का योग्य आतिथ्य ना होने से संबंध बिगड़ जाते है।

  1. Business Related किसी महत्व के call को ध्यान से  Attend ना करने पर लाखों रुपए के Order गवां देने पड़ते हैं। 

  1. घर में शायद चोरी भी हो जाए तो भी पता नहीं चलता।

पुराने जमाने में, 50 वर्ष की उम्र में पहुंचने पर भी वैद्य की जरूरत कभी भी ना पड़ी हो, ऐसे लोगों की संख्या 95% से 97% रहती थी। आज बिलकुल उल्टा हो गया है। डॉक्टर और दवा के बिना जिंदा ही ना रह सके ऐसी हालत पैदा हो गई है। उसके दूसरे भी कारण होंगे पर एक महत्व का कारण है। जीभ की परवशता। जीभ के चटकारे के लिए मनुष्य अपने पेट में कुछ भी डालने लगा है। इसलिए होटल्स के साथ-साथ हॉस्पिटल्स भी बढ़ने लगी।

आज पूरे विश्व को अपनी चपेट में लेने वाली कोरोना महामारी के मूल में, चीन के वुहान प्रदेश के मनुष्यों द्वारा ऐसा वैसा कुछ भी किया हुआ मांस के भक्षण का चटकारा ही है ना !

पर होता यह है कि, आज जीभ को चटकारा करवाया और कल बीमारी आ जाए, ऐसा नहीं होता है, इसलिए उन दोनों के बीच में रहे हुए कार्य-कारणभाव को जीव पकड़ नहीं पाता।

फिर भी, इस विषयों राग के गाढ़ परिणाम के कारण जीव को खुशी का आस्वाद मिलता है, उसके बिना नहीं। इसी ही लिए रोटी से ज्यादा पकवान में ज्यादा मज़ा आता है।

घर के फरसाण से बाहर का होटल का फरसाण ज्यादा स्वादिष्ट लगता है।

One Sided मैच में भारत जीतता हो तो भी उतनी मज़ा नहीं आती। इसका अर्थ स्पष्ट है कि राग-द्वेष के प्रमाण में सुखानुभव होता है।

जिस तरह रस्सी पर सुखाने रखे हुए कपड़े पर, वातावरण में जो रजकण होती है, वह वस्त्र को स्पर्श करने पर भी चिपकती नहीं है। पर यदि उस वस्त्र के ऊपर तेल लग जाए और चिकनाहट आ जाए तो, रजकण चिपकना शुरू हो जाता है। एक दाग पड़ जाता है। उसी तरह आकाश में जो कर्म रजकण होती है, वो आत्मा को स्पर्श करने पर भी ऐसे ही नहीं चिपकती, जैसे कि सिद्धात्माओं को! पर यदि आत्मा का राग-द्वेष से चिकनी हो, तब कर्म रजकण चिपक जाती है।

मतलब कि विषयों को भुगतने से राग होता है। राग के कारण पाप बंधता है। जो भविष्य में उदय में आता है, तब जीव को विषयभोग के सुख से ज्यादा, कईं गुना दुःख पहुँचाये बिना नहीं रहता है।

विषय का सुख अल्प, दुःख अनंत…!

और एक महत्त्व की बात यह है कि इन्द्रियों को जैसे-जैसे विषय देते जायेंगे, वैसे-वैसे वह और ज्यादा अतृप्त हो जाती है, कभी भी तृप्त नहीं होती है। नए-नए ज्यादा आकर्षक विषयों की Demand करती ही रहती है। हर एक को अपने ही जीवन की जांच करनी चाहिए।

पहले बड़ी कैबिनेट जैसे रेडियो थे। फिर ट्रांसिस्टर आया। फिर टेप रिकॉर्डर आया। फिर ब्लैक & व्हाइट टीवी, फिर Colour TV, फिर  LED… नया नया कितना ही बढ़ता गया। अब खुद को जागृत करो। 

हे जीव! तेरी इन्द्रिय और मन… इन सारे विषयों को बहुत ज्यादा भोगने के बाद अब तृप्त हुए हैं? अब फिर दुनिया में कोई नई चीज़ आ जाए… चाहे कितनी ही आकर्षक हो… पर हम उसकी इच्छा नहीं करेंगे। हम मना ही कर देंगे। इन्द्रिय और मन फिर से उस नई चीज़ पाने को ललचाता है। 

नई चीजों को प्राप्त करने और भोगने के लिए ही यदि मन और इन्द्रिय Demand कर रहे हो, तो समझ लेना चाहिए कि इन्द्रियों को चाहे कितने विषय दे दो, वह कभी भी तृप्त नहीं होने वाली है।

इसलिए करुणासागर प्रभु कहते है कि, 

इन्द्रियों के विषयों में जो तेरी रुचि है उसे है जीव! 

Divert कर! प्रभुभक्ति आदि में रस पैदा कर…

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