प्रश्न :
महाराज साहेब! अनेक प्रश्नों का समाधान हो गया हैं। अब एक नया प्रश्न है कि, दुनिया में सैकड़ों धर्म हैं। हर एक धर्म में कुछ ना कुछ rules and regulations होते ही है। पर अन्य किसी भी धर्म की अपेक्षा हमारे धर्म के नियम बहुत ही सख्त हैं, ऐसा क्यों?
उत्तर :
इस प्रश्न का जवाब अनेक प्रकार से दिया जा सकता है।
मान लीजिए कि, आपको नौकरी पर लगना है। आपको दो स्थानों से ऑफर मिली है। पहली नौकरी में काम का बर्डन कम है, दूसरी सुविधाएँ अच्छी है। दूसरी नौकरी में काम का बोझ थोड़ा ज्यादा है। नई सुविधाओं के बजाय तकलीफें ज्यादा हैं। पर दूसरी नौकरी में सेठ को यदि काम पसंद आ जाए तो धीरे-धीरे वह आपको पार्टनर बनाने को तैयार है। अरे! क्रमश: आप भी सेठ बन सकते हैं, ऐसी पूरी संभावना है। तो आप कौन सी नौकरी पसंद करेंगे?
याद रखना चाहिए कि,
हमेशा सेवक ही बनाये रखने वाली नौकरी करने से सेठ बनाने वाली नौकरी में ज्यादा कठिनाई होती है।
जॉर्ज बर्नाड शॉ सिर्फ 9 वर्ष की उम्र में नौकरी की तलाश में लंदन गए थे। वैसे तो वे book-worm यानि साहित्यरसिक जीव थे। दिन में काम करते थे और रात में लाइब्रेरी से पुस्तक लाकर पढ़ते थे। क्रमशः बहुत सारे धर्मों की फिलॉसफी से वाकिफ हो गए थे। जैनधर्म का साहित्य भी बहुत पढ़ा था, प्रभावित भी हुए, इसलिए मांसाहार छोड़कर पूरे शाकाहारी बन गये थे। एक बार किसी प्रसंग पर उन्होंने मांसाहार के विषय में कहा था कि, मेरा पेट कोई पशुओं के शवों को रखने का कब्रिस्तान नहीं है।
नाट्यकार बनने के बाद उन्होंने बहुत प्रसिद्धि हासिल की थी। एक बार महात्मा गांधी के पुत्र देवदास गांधी के साथ उनकी मुलाकात हुई। तब उनका इस प्रकार वार्तालाप हुआ था:
गांधी :
मि. शॉ! आप पुनर्जन्म में मानते हैं?
शो :
हाँ, मैं पुनर्जन्म में मानता हूँ।
गांधी :
तो आप अगले जन्म में क्या बनना चाहते हैं?
शो :
मैं जैन बनना चाहता हूँ।
जवाब सुनकर देवदास गांधी को जरा सा झटका लगा। उन्होंने कहा, “पुनर्जन्म के सिद्धांत को जिस तरह जैन मानते हैं, उसी तरह हिंदू भी मानते ही हैं, हिंदूओं की संख्या से जैनों की संख्या मुश्किल से सौ वें भाग जितनी होगी। तो आप ऐसी छोटी कौम में पुनर्जन्म क्यों लेना चाहते हैं?
शो :
आपके हिंदू धर्म में भगवान बनने के sole-rights, ब्रह्मा, विष्णु, महेश इत्यादि को दिए जा चुके हैं। कोई उनकी चाहे जितनी भी भक्ति कर ले, पर उस भक्ति से स्वयं ब्रह्मा इत्यादि नहीं बना जा सकता। उसको तो हमेशा के लिए सेवक और भक्त ही बने रहना होता है।
जबकि जैन धर्म में तो अरिहंत के ध्यान से अरिहंत बन सकते हैं। कहा जाता है कि अनंत अरिहंत परमात्मा बन चुके हैं, और भविष्य में अनंत बनने वाले हैं। तो जो धर्म मुझे खुद को भगवान बना दे ऐसा ही धर्म क्यों न चाहूँ?
बात ऐसी है कि, सिर्फ यह धर्म सिर्फ भक्त ही बने रहने का नहीं है, स्वयं भगवान बन सको ऐसा हमारा जैन धर्म है। सेठ बनाने वाली नौकरी में कठिनाइयाँ तो होगी ही ना?
बाकी हकीकत यह है कि, कोई भी चीज शुरू-शुरू में कठिन लगती है। नई शुरुआत करनी ही कठिन लग सकती है। फिर भी आप दृढ़ता से पकड़ रखेंगे तो वह एकदम सहज बन जाती है।
जो आज Chain Smoker है, उससे पूछना कि जब जिंदगी में पहली बार सिगरेट का कस लिया था, तब क्या अनुभव हुआ था वह आपको बता-येगा:
धुआं अंदर घूम रहा था, बहुत ही घुटन महसूस होती थी।
तो फिर वह Chain smoker कैसे बन गया? घुटन होने पर भी सिगरेट पीना उसने चालू ही रखा, चालू ही रखा, इसलिए व्यसन लग गया। अब सिगरेट के बिना चलता ही नहीं।
इसी तरह से जिन्होंने आज तक कंदमूल खाए हैं, उनको अब उसका त्याग करने में प्रारंभ में थोड़ी सी कठिनाइयाँ लगेगी। पर फिर भी उस त्याग में वह यदि दृढ़ रहेगा, तो कंदमूल त्याग सहज बन जाएगा। फिर उसमें कोई भी दिक्कत नहीं रहेगी।
आज भी ऐसे हजारों श्रावक हैं, जो बाहर जाते हैं, कंदमूल रहित भोजन का प्रबंध नहीं हो पाता है, तो घर से लेकर गये हुए थेपले आदि से या केवल दूध-केले आदि से गुजारा कर लेते हैं। और वह भी खुमारी और सहजता से, लाचारी से या जबरदस्ती से नहीं।
अरे! USA आदि परदेश में भी ऐसे सैकड़ों नरवीर आज भी मौजूद हैं।
ऐसा ही रात्रि भोजन त्याग आदि के लिए समझें।
और जिन्होंने जन्म से ही कंदमूल आदि का भक्षण नहीं किया है, उनके लिए तो यह त्याग बिल्कुल सहज होता है।
‘म. सा.! ये सारी बातें सच हैं, पर हमें तो कंदमूल या रात्रिभोजन का त्याग बहुत अधिक कठिन लगता है।’
यह तो आप दृढ़ संकल्पपूर्वक, उत्साह के साथ जब तक त्याग को प्रधानता देकर आगे नहीं बढ़ेंगे तब तक कठिन ही लगने वाला है। पर इस प्रकार से आगे बढ़ना चालू कर देंगे, और प्रारंभ में लग रही कठिनाइयों को Ignore करते रहेंगे तो धीरे-धीरे कठिनाइयाँ दूर होने लगेगी। और सहजता आ जाएगी।
जिनको Diabetes Diagnose हुआ हो ऐसे पेशन्टस को प्रारंभ में मिठाई त्याग, चाय भी फीकी पीना आदि सब कितना कठिन लगता है। पर इस त्याग को दृढ़ता से बनाये रखते हैं, तो फिर वे सब भी आराम से जीते ही है ना!
Practice makes a man perfect.
‘महाराज साहेब! आपको जो कहना हो वह कहो, पर हमें तो असंभव जैसा या अतिदुष्कर लगता ही है!’
अरे! भाग्यशाली! कोरोना महामारी में आए लॉक-डाउन से पहले,
रात को 9:00 बजे ऑफिस से आने के बाद भी एक चक्कर बाहर लगाए बिना नहीं रह सकने वालों को भी चौबीसों घंटे घर में पैक रहना क्या असंभव नहीं लगता था?
रात को काम वाली नहीं आई हो तो आखिर में बिना धोए के बर्तन पूरी रात भर बासी पड़े रहने देने वाली महिलाओं के लिए घर में कचरा, पोता, कपड़े धोना, बर्तन मांजना यह सब कुछ क्यां असंभव नहीं था?
धंधे में अपार रुचि रखने वाले व्यापारियों के लिए अच्छा आरोग्य होने पर भी बिना कमाई के घर पर बैठे रहना क्या असंभव नहीं था?
जिनकी रविवार की शाम तो किसी होटल या रिसोर्ट आदि में ही बीतती थी, ऐसे शौकीनों के लिए बिना किसी बीमारी के पिछले कईं दिनों से घर में घुटकर बैठे रहना, यह क्या असंभव नहीं था?
या तो किसी सहेली के यहाँ, या किसी मंडल में, या किसी पार्टी में, या किसी शॉपिंग मॉल में; इस तरह से रोज कहीं ना कहीं पर जाने के लिए घर से बाहर निकलने वाली सन्नारियों के लिए डेढ़-दो महीना कहीं पर भी नहीं जाना, क्या यह असंभव नहीं था?
क्रिकेट शौकीनों के लिए क्रिकेट छोड़ना क्या असंभव नहीं था?
रोज एक घंटा जोगिंग करने वालों को घर ही हवा ही खाते रहना पड़ा, क्या यह असंभव नहीं था?
लारी-गल्ले पर खड़े रहने वालों के लिए लारी-गल्ले को छोड़ना क्या असंभव नहीं था?
ये सभी Impossibles क्या Possibles नहीं बन गए? प्रारंभ में थोड़े difficult लगते थे, पर बाद में क्या Easy नहीं बन गये थे? बन ही गये थे, वरना तो लॉकडाउन उत्तरोत्तर बढ़ाए जाने पर प्रजा त्रस्त हो जाती, और अपने त्रास को दंगे, तूफान, चोरी, लूटमार आदि हंगामा करके व्यक्त भी कर देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। यह दर्शाता है कि सबको इन सब की आदत पड़ गई थी।
तो याद रखना कि, Nothing is impossible, Nothing is difficult.
‘पर महाराज साहेब कोरोना का त्रास और अ-सहाय लाचारीपूर्ण मौत – ये सभी आतंक नजर के सामने थे, इसलिए उसके डर के कारण से यह सब संभव हो गया और सहज भी बन गया।’
आपकी बात सच है। डर असंभव को भी संभव बना देता है।
राजकुमार बिस्मार्क अपने 3-4 मित्रों के साथ कहीं घूमने गया था। सबसे आगे चलने वाले मित्र का पैर ऐसे स्थान पर पड़ा जहाँ बहुत अधिक कीचड़ था। वह कीचड़ में धंसने लगा। बाहर आने के लिए जैसे-जैसे जोर लगाता गया, वैसे-वैसे और ज्यादा धंसने लगा। राजकुमार ने सारी परिस्थिति को समझ लिया। उसने अपनी राइफल निकाली और बराबर उस मित्र की ओर तानी। उंगली ट्रिगर पर रखकर उस मित्र को कहा, ‘दोस्त तू भगवान को याद कर ले, तू इस तरह से बेमौत मारा जाए, यह मैं नहीं देख सकूंगा, उससे अच्छा है कि मैं तुझे गोली मारकर ही खत्म कर देता हूँ।’
और उस मित्र ने ऐसा जोर लगाया कि वह सीधे कीचड़ के बाहर आ गया। हाँ! गोली से मर जाने का जो डर पैदा हुआ उसने यह शक्ति पैदा कर दी थी।
हम डेढ़ या दो साल पहले कोरोना का ‘क’ भी नहीं जानते थे। हमें खुद को तो कोरोना का कुछ भी अनुभव नहीं हुआ, पर फिर भी सरकार और मीडिया जो कुछ कह रहे हैं उसी के आधार पर हमें यह डर पैदा हुआ है ना?
तो फिर प्रभु के वचन (शास्त्रों) और गुरु भगवंत के व्याख्यान हमें कंदमूल भक्षण आदि के दुर्गति-गमनादि दुष्प्रभाव बताते हैं, उसके आधार से हमें डर पैदा नहीं होगा?
यदि हम जंगल में गुमराह हो जाएँ, और सबको जोर से भूख लगी हो। एक वृक्ष पर सुंदर फल दिख गए हों और 2-4 फल तोड़कर खाने की तैयारी ही कर रहे हों कि, जंगल का कोई आदि-वासी हमें खाने से रोके और कहे कि, ‘सेठजी खाना मत, जहरीला फल है!’
तो क्या हम उसे खाएँगे? या भूख सहन करना पसंद करेंगे?
कोई अतिमहत्त्व के काम से सुबह 5:00 बजे निकलना है। ड्राइवर को सुबह 4:30 बजे आकर गाड़ी तैयार करके गेराज से बाहर निकालने की सूचना दी गई है। तदनुसार उसने बाहर निकाल कर हमारे सामने खड़ी कर दी है। हम बैठ गए। ड्राइवर Car Start करे, इतने में हमारे घर का नौकर दौड़ता-दौड़ता हुआ आए और हाँफते-हाँफते कहे कि, ‘सेठजी पिछली रात को मुझे सपना आया था कि आप कार में निकले, थोड़े ही आगे गए और एक खतरनाक एक्सीडेंट हो गया। कोई भी नहीं बचा। सेठजी कार में मत जाना।’
हम जाएँगे? या महत्त्व के काम को भी टाल देंगे?
हमको बिल्कुल अपरिचित भील का वचन भी डर पैदा कर सकता है। नौकर का स्वप्न भी डर पैदा कर सकता है। लेकिन प्रभु के वचन नहीं?
Comentarios