Temper : A Terror – 4
( नदी के किनारे वृक्ष की छाया में अमर और मित्रानंद गिल्ली डंडा खेल रहे थे । तब अमर द्वारा फेंका गया डंडा वृक्ष के ऊपर लटके हुए चोर के शव के मुख में गिर पड़ा और बाद में वृक्ष पर लटकाये हुए चोर के शव के मुख में से वह आवाज आ रही थी ।
“याद रख ! मित्रानन्द ! बहुत हँसी आ रही है ना तुझे ! लेकिन एक दिन तु भी मेरे जैसे ही यहाँ पे लटकता होगा । हाँ…! और तेरे भी… हाँ…! तेरे भी मुँह में इसी तरह से गिल्ली फँसी होगी । हा… हा… हा…! हा… हा… हा…!”
तत्पश्चात क्या होता है ? पढ़िए…..)
स्मशान जैसी निरव और गम्भीर शान्ति हवेली की खंड में फैली हुई थी । धगधगती ज्वाला खंड को गर्म रखने की पूरी कोशिश कर रही थी । किन्तु एक कातिलाना ठण्डी की सनसनाटी मित्रानन्द के हृदय में प्रविष्ट हो गई थी जिसे प्रचण्ड से प्रचण्ड अग्नि भी ऊष्मा देने में निष्क्रिय थी ।
पीछले तीन रात्री से मित्रानन्द की नींद खो गई थी । उसके दिल-ओ-दिमाग में एक ही आवाज उत्पात मचा रही थी और हँसी भय का भौकाल ताण्डव कर रहा थी… “एक दिन तु भी मेरे जैसे ही… हा… हा… हा…!”
मित्रानन्द पूर्ण रात्रि सेज पर बैठ-बैठकर निकालता था, तीन दिनों से नींद न लेने के कारण जैसे ही उसे झौंका आता वह अचानक से हडबड़ाते हुए ऊठकर भय से चारों तरफ देखता था ।
अपने मित्र की ऐसी अवस्था देखकर अमर भीतर से अत्यन्त दुःखी हुआ था, उसका हृदय विदीर्ण हो गया था । लेकिन वह कर भी क्या सकता था । अमर अपनी शैय्या में से ऊठकर मित्रानन्द के पास गया ।
“मित्रानन्द !” अत्यन्त निकट जाकर खड़े होते हुए अमर मित्रानन्द को आवाज देता है । मित्रानन्द अश्रु भरी आँखों से अमर की ओर देखता है । वह ऊठकर अमर के पैरों में गिरकर उन पैरों से लिपटते हुए जोर-जोर से रोने लगता है ।
रोते-रोते ही वह अमर से कहता है, “मेरी रक्षा करो, अमर ! मेरी रक्षा करो…”
“हे मित्रानन्द ! तुम ये कैसी बालचेष्टाएँ कर रहे हो ? एक बेवकूफ़ व्यंतर की बातों को तुमने सत्य कैसे मान लिया, बावरे ! चल ऊठ अब !”
“पीछले तीन रात्रि से तु बिल्कुल सोया नहीं है, न ढंग से कुछ खाया है । दो बार तो कुलपति का आदेश भी आया था तेरे लिए । और कितने समय तक तु यहाँ पर ही छुपके रहने वाला है ?” अमर के इस कथन में मित्रानन्द ने वास्तविक तथ्य का अनुभव किया ।
“मित्रानन्द ! तु किस कारण से उस व्यंतर की बातों से इतना भ्रमित हो गया है ? वह तो केवल हास्यास्पद चेष्टा कर रहा था, जो थोड़ी ना सच होने वाली है !” उसे आश्वासन देते हुए अमर ने कहा ।
“और यदि उसकी बातें सच निकली तो ?” मित्रानन्द के आँखों में भय स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था ।
“तो भाई ! उन बातों को झूठा करने के लिए पुरुषार्थ कर ! क्या कुलपति ने सिखाया हुआ श्लोक तुम्हें याद नहीं है मित्रा ?” मित्रानन्द की ओर देखते हुए अमर ने कहा ।
“कौनसा श्लोक ?”
“आपतन्निमित्तदृष्टाऽपि जीवितान्तविधायिनी ।
शान्ता पुरुषकारेण ज्ञानगर्भस्य मन्त्रिणः ।।”
“अर्थात् ! मित्र, पुरुषार्थ ही ऐसी वस्तु है, जो कितनी भी बड़ी आपत्ति क्युँ न हो, उसे वह मिट्टी में मसल देने की क्षमता रखता है ।”
अमर की इन बातों को सुनकर मित्रानन्द को अब थोड़ी शान्ति का अनुभव हो रहा था ।
“लेकिन फिर भी… मैं अब यहाँ पर नहीं ठहर सकता । मैं जब भी यहाँ की सभी वस्तुओं को देखता हूँ तो… तो मुझे वह वृक्ष और उस पर लटका हुआ वह प्रेत…” इतना कहते हुए मित्रानन्द की जीव्हा अचानक से रूक गई । उसके कानों में फिर से उसी व्यंतर की आवाज गुँजने लगी ।
अमर के समक्ष एक विकट प्रश्न उपस्थित हुआ था । एक तरफ मित्र, तो दूसरी ओर उसका परिवार ।
“मित्रानन्द ! मित्र, सदा ही सुख और दुःख में समान होते हैं । इसलिए आज से जो मार्ग तेरा होगा वही पथ मेरा भी रहेगा ।”
चोरों की तरह चौकीदारों को चकमा देकर अमर और मित्रानन्द ने किले की कोट से छलाँग लगायी । घने अंधेरे में कोई पकड़ न सके इसलिए परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए दोनों ने फटी हुई काली कम्बल से स्वयं को ढक लिया था । पैरों का आवाज किए बिना धीरे-धीरे चलते हुए थोड़ी दूर जाकर उन्होंने थोड़ी राहत की साँस ले ली ।
“अमर ! बोल अब यहाँ से आगे कहाँ जाना है ? भगवान की कृपा से हम यहाँ तक तो पहुँच गए किन्तु अब आगे के मार्ग का ही अत्यन्त निर्णायक है !”
अमर विचारों में खोया था । अपने श्रेष्ठी पिता से उसने बहुत सारे नगरों की काल्पनिक एवं वास्तविक कथाओं को सुना था किन्तु उसका हृदय उनमें से किसी का चयन करने के लिए तैयार था ।
“राजगृही…?” कम्बल में से धीरे से सिर बाहर निकालकर साँस लेते हुए मित्रानन्द ने पूछा ।
किन्तु अमर ने नकारात्मक रूप से सिर हिलाया ।
“काकन्दी…?” अमर ने फिर से सिर हिलाकर नकारा ।
“श्रावस्ती…?”
“नहीं मित्र, वहाँ तो बिल्कुल भी नहीं !”
“वाराणसी…?”
“हममम्…” अमर अभी भी विचाराधीन ही था ।
“कुहू… कुहू…” इतने में पश्चिम दिशा की ओर से कोयल की टहुकार सुनाई दियी ।
“तुझे सुनाई दियी ?” मित्रानन्द की ओर देखते हुए अमर ने पूछा ।
“हाँ ! यह शुभ संकेत लगता है… पश्चिम में क्या है ?”
“पाटलीपुत्र…!” यह कहते हुए एक अनोखी चमक अमर की आँखों में दिखाई दे रही थी ।
मेरु पर्वत के उत्तुंग शिखरों के भाँति नगर के प्रासाद दूर-दूर से ही नजरों में आ रहे थे । आम्र, अशोक, पीपल, वट इत्यादि अनेक वृक्षों ने पाटलीपुत्र की ओर जाने वाले मार्ग को दोनों ओर से सुशोभित किया था ।
“अमर…! तुझे वहाँ दूर कुछ दिखाई दे रहा है ?” मित्रानन्द की हाथ की उँगली के इशारे की ओर नजर ड़ालते हुए अमर ने उस दिशा में देखा । मित्रानन्द की नजर बाज़ की नजर को भी मात दे सके इतनी तीक्ष्ण थी ।
“हाँ…! कुछ दिखाई तो दे रहा है… लेकिन ए यहाँ से कितना दूर होगा ?” मित्रानन्द की ओर देखते हुए अमर ने पूछा ।
“होगा, यहीं दो-तीन गाँव… लेकिन इससे और दूर तक का दिखाई नहीं देता है… उसकी चारों ओर वृक्ष ही नजर आ रहे हैं । ऐसा लगता है कि यह प्रासाद पाटलीपुत्र की सीमा के बाहर स्थित है ।” दोनों की आँखे उसी प्रासाद को निहार रही थी ।
अमरपुर से निकलकर दोनों को 1 महिना बीत गया था । संपूर्ण मार्ग पथरीला होने के कारण समय भी अधिक लगा था । मार्ग में अनेक जंगलों से गुजरना पड़ेगा यह जानकर दोनों ने अपने पास आवश्यक शस्त्रसामग्री एवं धनराशी भी रखी थी ।
एक बार जंगली सुअरों ने किए हुए आक्रमण के सिवाय और किसी दुर्घटना का सामना उन्हें नहीं करना पड़ा था । प्रवास सुखरूप हुआ था । दिनभर की यात्रा से थक जाने के पश्चात् रात्री में किसी स्थान पर विश्राम करने के पूर्व वे अपनी चारों ओर अग्नि प्रकट करके सो जाते थे ताकि कोई जंगली प्राणी उनके ऊपर हमला न करें ।
“अमर…! चल थोड़ी शीघ्रता करते हैं ! अभी प्रयाण करेंगे तो प्रातःकाल तक पहुँच जाएँगे, नहीं तो पता नहीं वहाँ हमे कौन मिलेगा ?” एक अपरिचित स्थान पर प्रवेश करने की कल्पना से ही मित्रानन्द की आँखे चमक रही थी ।
अलकापुरी की सुन्दरता का विस्मरण हो जाए ऐसी अलौकिक सुन्दरता का दृश्य अमर की आँखों के सामने नृत्य कर रहा था । पत्थरों को इतनी सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप में उत्कीर्ण करके तराशा था कि मानों भीतर छिपा हुआ दृश्य बाहर ही आने वाला हो । ऐसा कलाविष्कार देखते हुए दोनों भी मन्त्रमुग्ध होकर किसी मूर्ति के भाँति निश्चल खड़े थे । अपने बिताए हुए अतित में उन्होंने ऐसी नयनरम्य, मनमोहक कलाकृति कभी नहीं देखी थी ।
“अमर ! ऐसा प्रतित होता है कि स्वयं विश्वकर्मा ने अपने हाथों से इस प्रासाद का निर्माण किया हो । है ना…?”
अमर ने कुछ प्रत्युत्तर नहीं दिया । वह अभी भी उस कलाकृति को देखने में ही मग्न था । ऐसे अनमोल आविष्कार की प्रशंसा करके उसे मूल्यवान बनाने की अमर की यत्किंचित भी इच्छा नहीं थी ।
पूर्ण प्रसन्नता प्राप्त होने तक द्वार को देखकर दोनों ने प्रासाद में प्रवेश किया । प्रासाद की ऊँचाई उत्तुंग एवं विस्तार प्रदीर्घ था । प्रासाद के मध्य में चारों ओर से स्तम्भो के द्वारा सुशोभित एक सुन्दर एवं आकर्षक सभामण्डप बनाया था ।
ऐसे ही एक नयनरम्य खम्भे की ओर अमर के नयन आकर्षित हो गए । वह उस खम्भे के अत्यन्त निकट गया । उस खम्भे पर किसी स्त्री का चित्र चित्रांकित किया था । उस चित्र को देखकर ऐसा प्रतित हो रहा था कि जैसे महाभारत की महागाथाओं की नायिका पाञ्चाली स्वयं ही वहाँ उपस्थित है, उस चित्र में उसका वास है ।
उस चित्र में चित्रांकित स्त्री-रत्न की झाँकी देखकर अमर शून्यमनस्क हो गया था । मित्रानन्द उसे इस अवस्था में देखते हुए अचम्बित हो गया था ।
लाख से चिपकाए हुए पत्र की भाँति अभिन्नावस्था में स्थित अमर को मित्रानन्द ने अतिप्रयत्न के साथ झकझोरा ।
“क्या हुआ ?” जैसे किसी वास्तविक स्वप्न में से उसकी अनिच्छा होते हुए भी जगाया गया हो, इस प्रकार का आविर्भाव अमर के मुख ऊपर झलक रहा था ।
“अमर ! इस स्वप्न में से बाहर आओ ! इस चित्र में बन्धी मूरत के पाश से स्वयं को मुक्त करो ! सन्ध्या का समय हो गया है और थोड़े ही समय में नगर के द्वार बन्द हो जाएँगे ! मैं तुम्हें कितनी देर से आवाज दे रहा हूँ लेकिन उस चित्र के सामने से हटने का तुम नाम ही नहीं ले रहे हो !” मित्रानन्द ने गुस्से से कहा ।
“क्या करूँ ? इस मूरत ने मुझे मोहित कर दिया है, इसके सिवाय मुझे कुछ नहीं सुझ रहा है । इसे छोड़कर मैं कैसे जा सकता हूँ ?” उस चित्र को अत्यधिक स्नेह से स्पर्श करते हुए अमर ने कहा ।
“जिसे तराशकर इस कलाकृति में कैद किया है, ऐसे चित्र से क्या स्नेह रखते हो ? नगर में तुम्हें ऐसी सैकडों यौवनाएँ मिलेंगी, चल अब शीघ्रता कर !” प्रहरघटिका की ओर देखते हुए अमर ने कहा ।
“नहीं…! नहीं मित्र नहीं…!” करुणान्तक स्वर में अमर कहता है, “हे मित्र ! यदि मैं एक क्षण के लिए भी इस चित्र से दूर हो जाऊँगा तो मेरी मृत्यु निश्चित है । इसलिए कृपा करके तु मुझे यहाँ से अस्थान करने की चेष्टा कदापि ना कर…!”
अपनी मित्र की यह दशा देखकर मित्रानन्द की नयनों से अश्रु बहने लगे । अत्यन्त उदासिनता के साथ वह अपने मित्र को देखने लगा ।
“हे मित्र…! यह सुन्दरी मुझे कहाँ मिलेगी, कैसे प्राप्त होगी ?” ऐसा पूछते हुए वियोगभाव से अब अमर की आँखों से भी अश्रुधाराएँ बहने लगी थी ।
( क्रमशः )